सही रास्ता
जाड़े शुरू होने वाले थे, इसलिए सारी की सारी चींटियाँ भोजन जमा करने में जुटी हुईं थीं। शाली और रेनु चींटी भी खाने की तलाश में सुबह ही निकल जाती थीं।
दोनों को चिंता थी कि सरदियों से पहले ही सामान इकट्ठा कर लें, जिससे बच्चों को परेशानी न हो। जाड़ों में दुःख न उठाना पड़े।
शाली और रेनु कभी किसी खेत में जातीं और कभी किसी घर में, अपने मुँह में कभी गेहूँ का दाना लातीं, कभी चीनी लातीं, कभी दाल लातीं तो कभी कोई कीड़ा ही उठा लातीं। बार-बार आकर ये अपने मुँह की चीजें अपने-अपने बिलों में रख जातीं।
इस प्रकार दिन में कई-कई चक्कर लगाकर वे खाने का सामान जुटातीं। दिन में सुस्ताना, आराम करना तो दोनों ने जैसे जाना ही न था। वे अपनी धुन की पक्की थीं, निरंतर काम करती रहती थीं।
शाली और रेनु के घर के पास ही रोहू नाम की एक चींटी भी रहती थी, वह बड़ी आलसी थी, कुछ काम करती न थी । सारे दिन पड़ी-पड़ी अलसाती रहती थी।
जब उसे बहुत भूख लगती थी या जब उसके छोटे-छोटे बच्चे भूख से रोने लगते थे, तब कहीं जाकर वह खाने की तलाश में निकलती थी। रोहू के इस आलसीपन के कारण उसके बच्चे तंग रहते थे । वे भी प्राय: भूखे ही रह जाया करते थे।
रोहू के बच्चे देखते थे कि पड़ोसी चींटियों के बच्चे अच्छी- अच्छी चीजें खाते हैं। कभी वे चीनी खाते हैं तो कभी दाल, कभी रोटी खाते हैं तो कभी मिठाई । रोहू के बच्चों को अधिकतर मिलते हैं, मरे-गले, कीड़े-मकोड़े या सूखा अन्न ।
उसे खाते-खाते वे ऊब गए थे। एक दिन रोहू का छोटा बच्चा बोला – “माँ ! तुम सदैव रूखा-सूखा खाना खिलाती हो। उनकी माँ उन्हें कितना प्यार करती हैं, जो तरह-तरह की अच्छी-अच्छी चीजें लाकर खिलाया करती हैं । “
रोहू ने बच्चे की बात सुनी तो उसे झिड़क दिया। बोली – “मैं इससे ज्यादा मेहनत नहीं कर सकती। तुम बड़े हो जाओ तो अपने आप अच्छी चीजें खाना।’
बेचारे बच्चे चुप रह जाते। माँ से वे कह भी क्या सकते थे ? शाली और रेनु चींटी जब खाना ढूँढ़ने जातीं तो देखतीं कि रोहू चींटी आराम से सोई है। वे आपस में कहतीं- “देखो ! जाड़े पास आ रहे हैं। इसके छोटे-छोटे बच्चे हैं। यह तो कुछ भी सामान एकत्रित नहीं करती। जाड़ों में क्या खाएगी और क्या बच्चों को खिलाएगी ?”
एक दिन आखिर उन दोनों से रहा न गया। वे रोहू के पास पहुँचीं। शाली बोली – “बहन ! क्या तुम जाड़े के लिए खाने का सामान नहीं जुटा रहीं ?”
“ओह! अभी से क्या चिंता करना ? समय आने पर देखा जाएगा,” रोहू बोली।
शाली और रेनु तो चली गईं, पर उनकी बात रोहू चींटी के मन पर असर कर गई। वह सोचने लगी- ये ठीक कहती हैं। समय पर एकाएक भोजन जुटाना तो कठिन पड़ जाएगा, पर इतनी दूर-दूर जाकर भोजन जुटाना तो मेरे वश का नहीं।
रोहू बड़ी देर तक सोचती रही कि क्या करना चाहिए? सहसा उसे एक उपाय सूझा और वह मन ही मन मुस्करा उठी।
दूसरे दिन से रोहू ने उस उपाय के अनुसार काम करना शुरू कर दिया। जब शाली और रेनु अपने-अपने घरों से जातीं तो रोहू वहाँ से थोड़ा-थोड़ा सामान चोरी करके ले आती। कई दिनों तक रोहू इसी तरह चोरी करती रही। जल्दी ही उसका घर भी तरह- तरह के भोजन से भर उठा।
इधर शाली और रेनु परेशान थीं कि वह सारे दिन मेहनत करके सामान जुटाती हैं, पर उनका सामान आधा ही मिलता है। वह आखिर कहाँ चला जाता है ? शाली बोली- ” जरूर हमारे पीछे कोई और आता है और चोरी करके चला जाता है।”
‘पर चोर को ढूँढ़ा कैसे जाए ?” रेनु ने पूछा।
“मुझे तो रोहू पर शक है। सारी चींटियाँ भोजन जुटाने जाती हैं, एक वही आराम से रहती है।” शाली बोली ।
“चलो ! हम उसके घर चलकर देखें।” रेनु बोली और दोनों सहेलियाँ रोहू के घर की ओर चल पड़ीं। वहाँ उन्होंने देखा कि उनका जमा किया हुआ बहुत सा अन्न रोहू के घर में है। रेनु और शाली ने आँखों से एकदूसरे को कुछ इशारे किए।
शाली कहने लगी- ” रोहू! तुमने तो अन्न जुटा लिया है।”
“और क्या ?” रोहू आँखें नचाती हुई बोली।
“पर तुम कभी हमें भोजन की तलाश में घूमती हुई तो मिलती नहीं हो। ” रेनु ने कहा ।
इतने में रोहू का छोटा बच्चा बोल पड़ा-“माँ तो जरा सी देर में जाकर अन्न जुटा लातीं हैं। पड़ोस में ही कहीं जाती हैं और जल्दी ही वापस आ जाती हैं। “
रोहू ने अपने बच्चे को आँखों से धमकाया।
“रोहू तुम बुरा न मानना। तुमने यह अन्न हमारे घरों से है। ” शाली और रेनु दोनों एक साथ बोलीं । चुराया “ऐसा तुम किस आधार पर कह रही हो ?” रोहू ने जोश में आकर पूछा।
“गुबरीला दादा कह रहे थे कि हमारे घरों से जाने के बाद तुम रोज हमारे घरों में घुसती हो।” शाली बोली। रोहू चुप हो गई। वह कहती भी क्या ? गुबरीला तो उसे रोज ही रास्ते में मिलता था ।
रेनु समझाने लगी – “देखो बहन ! चोरी करना बहुत बुरा है। चोरी करके जो चीज हम लेते हैं, वह कभी फलती नहीं है। उसका सदा बुरा परिणाम ही हमें मिला करता है । चुराकर जो अन्न खाया जाता है, वह बीमार ही बना डालता है। हमें परिश्रम और ईमानदारी से कमाना चाहिए।”
रोहू के बच्चों की समझ में भी अब बात आ गई थी की माँ कैसे अन्न इकट्ठा करती है ? वे सभी बोल पड़े- “माँ! मौसियों को उनका सामान लौटा दो। हम चोरी की कमाई नहीं खाएँगे, नहीं खाएँगे।
तुम खाना इकट्ठा करने नहीं जाओगी तो हम सब मिलकर चले जाएँगे। अपने नन्हे हाथ-पैरों से जितनी मेहनत संभव होगी, कर लेंगे, पर खाएँगे ईमानदारी का ही।”
बच्चों की इस प्रताड़ना से रोहू की आँखें खुल गईं। वह बोली – “बच्चो ! तुम ठीक कहते हो। तुम सभी ने मिलकर आज मुझे सही रास्ता दिखा दिया है।”
फिर उसने रेनु और शाली से कहा- “बहनो! मैं अपना अपराध स्वीकार करती हूँ। मैंने तुम्हारे घरों से ही चोरी की है। तुम अपना यह सामान ले जाओ। चोरी का दंड जो मुझे देना चाहो वह दे दो। मैं उसे स्वीकार करूँगी।”
शाली बोली – “तुमने अपना अपराध स्वीकार किया है, यह जानकर हमें बड़ी खुशी हुई। गलती तो सभी से होती ही रहती है। बुरा वह नहीं है जो कभी गलती नहीं करता । बुरा वह है जो गलत करके भी उसे स्वीकार नहीं करता। जो अपनी गलती मानते हैं, वही उसे दूर कर पाते हैं । “
रेनु ने कहा – ” तुम्हारे लिए यही दंड है कि तुम जाड़ों के लिए अपना भोजन स्वयं जुटाओ ।”
“हाँ, वह तो मैं करूँगी ही। तुम सभी ने मिलकर मेरी आँखें खोल दी हैं। अब मैं मेहनती बनूँगी। आलसी कभी सुख नहीं पाता, किसी का सम्मान नहीं पाता। मैंने बहुत सा जीवन आलस्य और प्रमाद में व्यर्थ गँवा दिया। रोहू बोली और फिर उसने शाली-रेनु को खुशी-खुशी उनका सारा अन्न वापस कर दिया।”
उसी दिन से रोहू ने अपना सारा आलस्य त्याग दिया। अब वह सारे दिन मेहनत करती है। उसकी बहुत सी सहेलियाँ भी बन गईं हैं। सभी उससे खुश रहती हैं। रोहू के बच्चे भी उससे बहुत प्रसन्न रहते हैं।