सोच-विचार कर काम करें

गेहूँ के खेत की मेड़ पर अमरूद का एक पेड़ था। उसी पेड़ पर चंपा गिलहरी रहा करती थी। अमरूद और गेहूँ के दाने खाते- खाते, एक जगह रहते-रहते चंपा ऊब गई। उसने सोचा कि कुछ दिनों के लिए अपनी सहेली के पास चलना चाहिए।

चंपा की सहेली नीरा नाम की गिलहरी थी। वह शहर में रहती थी। शहर में एक बहुत बड़ा विद्यालय था। वहीं नीरा रहा करती थी । विद्यालय खूब बड़ा था, उसमें तरह-तरह के पेड़ लगे थे।

खूब घास और फुलवारी लगी थी। नीरा बड़े आराम से एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर फुदकती फिरती थी । हरी-हरी घास में घूमती रहती थी।

चंपा चलते-चलते नीरा के यहाँ पहुँची। नीरा अपनी सहेली को देखकर खुशी से भर उठी। उसने अपनी लंबी पूँछ जोर-जोर से हिलाकर-दोड़कर उसका स्वागत किया। दोनों सहेलियाँ नीम की छाया में बैठी देर तक बातें करती रहीं। दोनों अपने-अपने दुःख- सुख की आप बीती बताने लगीं।

सहसा नीरा को ध्यान आया कि उसने अपनी सहेली से कुछ खाने की बात नहीं पूछी है। “अरे! मैं तो बातों में भूल ही गई कि तुम भूखी होंगी। मैं अभी जाकर तुम्हारे लिए खाना लाती हूँ।” नीरा ने कहा और वह खाना लेने दौड़ पड़ी।

विद्यालय में लड़कियाँ तरह-तरह की चीजें खाती थीं। उसकी कुछ जूठन बच जाती थी। नीरा दौड़कर गई और वहाँ से कचौड़ी, मूँगफली आदि चीजें उठा लाई । चंपा ने बड़ा स्वाद ले-लेकर उन्हें खाया।

बड़े दिनों के बाद उसे ऐसा भोजन मिला था, वह तो प्रतिदिन फल और गेहूँ ही खाया करती थी। तुम्हारे यहाँ का तो भोजन बहुत ही स्वादिष्ट है। उसने नीरा से कहा ।

“चलो केंटीन में चलते हैं। वहाँ तरह-तरह की चीजें हैं, उन्हें खाकर तुम्हें खुशी होगी।” नीरा बोली।

दोनों सहेलियाँ एक खिड़की के रास्ते केंटीन में जा पहुँचीं। तरह-तरह की चीजों से केंटीन महक रही थी “तुम क्या खाना पसंद करोगी ?” नीरा ने पूछा।

एक भगोने में बड़ी अच्छी खुशबू आ रही थी। इसमें क्या है ? चंपा ने पूछा ।

‘आलू-छोले।” नीरा ने जवाब दिया।

दोनों सहेलियों ने भरपेट आलू-छोले खाए। तभी सहसा मालिक के आने की आवाज आई। दोनों वहाँ से तेजी से भाग छूटीं । ‘अब तुम क्या पीओगी? चाय या शरबत ।” नीरा पूछने “लगी।

‘ओह! मेरा तो पेट भर गया है। इस समय तो मुझे खाली ” पानी चाहिए।”

एक गड्ढे में पानी भरा था। दोनों ने पी लिया। “चलो मैं तुम्हें विद्यालय में घुमाती हूँ।” नीरा ने कहा ।

नीरा और चंपा दोनों हरी-हरी मखमल सी घास पर बहुत देर तक घूमती रहीं। वहाँ के सुंदर वातावरण ने चंपा के रास्ते की सारी थकान दूर कर दी।

चंपा नीरा के यहाँ कई दिनों तक रही। खूब खुली जगह, चारों ओर हरियाली और पेड़ । खाने को अनेकों तरह की चीजें । चंपा को यह सब बड़ा अच्छा लगा। नीरा बोली – ” चंपा ! तुम घर जाकर क्या करोगी ? अब तो तुम हमेशा के लिए यहीं मेरे पास रह जाओ।”

“नहीं बहन ! मैं दो-चार दिनों में वापस चली जाऊँगी। मित्र के यहाँ हमेशा रहने से स्नेह बढ़ता नहीं, घटता ही है। ” चंपा गंभीर होते हुए बोली।

“संभव है तुम्हारी बात ही सच हो।” नीरा कहने लगी।

इसके बाद दोनों सहेलियाँ घूमने निकल गईं। घूमते-घूमते वे एक तालाब के किनारे जा पहुँचीं। चंपा और नीरा तालाब के पास की झाड़ियों में छिपकर बैठ गईं। चंपा को तालाब बड़ा ही अच्छा लगा।

उसने इससे पहले कभी तालाब देखा नहीं था। तालाब में कुछ लड़कियाँ नहा रही थीं, कुछ नाव चला रही थीं। चंपा बड़े ध्यान से देखती रही।

“चलो हम भी तालाब में नाव चलाएँगे।” चंपा कहने लगी। फिर तुरंत दौड़कर तालाब के किनारे जा पहुँचीं।

“अरे! रुको तो, रुको तो।” कहती नीरा उसके पीछे दौड़ी।

‘चंपा तुम अभी यहाँ नई-नई आई हो। तुम्हें पता नहीं है कि यह तालाब बहुत गहरा है। इससे अलग ही रहो।” नीरा ने उसे समझाया। “अरे! तुम तो बड़ा डरती हो। चलो किनारे पर ही थोड़ा सा”

नहाते हैं।” चंपा ने कहा और तुरंत तालाब में उतर पड़ी। पर यह क्या? छपाक आवाज हुई और चंपा तालाब में डूबने लगी। अब वह सहायता के लिए जोर-जोर से चिल्लाने लगी।

चंपा की यह स्थिति देखकर नीरा पहले तो सकपका गई, किंतु तुरंत सहायता के लिए दौड़ी। उसने जल्दी से एक शहतीर का लंबा टुकड़ा उठाया और तालाब के किनारे फेंका।

संयोगवश वह टुकड़ा चंपा के पास जाकर गिरा। पानी में डूबती-उतराती चंपा तुरंत शहतीर के टुकड़े पर चढ़ गई और दौड़कर तालाब के किनारे आ गई।

चंपा अपनी करतूत पर बड़ी शरमिंदा थी। वह हाथ जोड़कर नीरा से बोली – ” बहन ! मुझे माफ कर दो। तुम्हारी बात न मानकर मैंने बड़ी भयंकर भूल की है। यदि तुम समय पर मेरी सहायता न करतीं तो आज मैं डूब ही जाती।”

नीरा बोली– “भगवान को बहुत-बहुत धन्यवाद कि तुम गईं। नहीं तो सोचो कि आज मेरी क्या स्थिति होती ? हमें सोच- बच समझकर काम करना चाहिए। अपने से जो ज्यादा अनुभव रखता हो, उसकी बात पर विचार करना चाहिए। उसके कहने के अनुसार काम करना चाहिए। जो उतावली में थोड़े से लोभ में आकर काम करता है, वह बाद में दु:ख ही पाता है । “

“तुम ठीक कह रही हो बहन ! हमें अपनी ही बात नहीं लगानी चाहिए, दूसरों की बात पर भी ध्यान देना चाहिए।” चंपा गिलहरी बोली ।

चंपा ने उस दिन प्रतिज्ञा की कि अब वह मनमानी नहीं किया करेगी। सोच-विचारकर काम करेगी। उसकी इस प्रतिज्ञा से नीरा बड़ी प्रसन्न हुई । उसने अपना हाथ चंपा से मिलाया और बोली- “अपने वचन को ध्यान रखना ।

तीन-चार दिन बाद नीरा ने चंपा को बहुत से उपहार देकर विदा किया।

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