पाखंड उन्मूलक सच्चे संन्यासी दयानंद
टंकारा (गुजरात) में जन्मे मूलशंकर अधिक विद्या प्राप्त करने की दृष्टि से घर छोड़कर मथुरा चल दिए। यहाँ स्वामी विरजानंद की पाठशाला में उनने संस्कृत भाषा तथा वेदों का गहन अध्ययन किया ।
अन्य विद्यार्थी तो पढ़-लिखकर अपना पेट पालने चल देते हैं, गुरु को एक प्रकार से भूल ही जाते हैं । मूलशंकर उनमें से न थे । उनने विरजानंद से गुरुदक्षिणा के लिए निवेदन किया । गुरु ने उनसे वेद-धर्म का प्रसार करने में और प्रचलित पाखंड के उन्मूलन में जीवन लगा देने की याचना की ।
सच्चे शिष्य ने तत्काल संन्यास ले लिया और नाम स्वामी दयानंद रखा गया । वे गुरु की इच्छा पूरी करने के लिए देशव्यापी भ्रमण में निकल पड़े । कुछ समय उन्होंने हिमालय गंगा तट पर तप किया और नया आत्मबल संचित करके अपने काम में जुट गए ।
उनने आर्यसमाज की स्थापना की । ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक प्रख्यात ग्रंथ लिखा । वेद भाष्य किया और अनवरत प्रव्रज्या में जुट गए । उनके प्रयास से एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया, जिसने हिन्दू धर्म के पुरातन स्वरूप से जन-जन को अवगत कराया ।
आर्य समाज की खदान में से बहुमूल्य मणि-माणिक्य निकले जिनकी कृतियों को कभी भुलाया न जा सकेगा ।