संगठन की शक्ति

पीपल के एक पेड़ की जड़ में बहुत सारी चींटियाँ घर बनाकर रहती थीं। सभी बड़े सहयोग से काम करती थीं। सदैव मिल- जुलकर काम करती थीं। यही कारण था कि उन्हें किसी बात की परेशानी नहीं थी।

सुबह होते ही सारी चींटियाँ तेजी से अपने काम में जुट जाती थीं। कुछ तो दिन में बिल की सफाई करतीं, कुछ चींटियाँ भोजन की खोज में निकल पड़तीं। इस प्रकार बड़े सुख से वे चींटियाँ रह रही थीं।

एक बार की बात है कि चींटियों की एक कतार खाना खोजने निकली। कतार में बहुत सी चींटियाँ थीं। वे सभी अलग-अलग जगह चली गईं। चानी नाम की एक चींटी किसी रसोईघर में जा घुसी।

वहाँ उसने देखा कि थाली में चीनी भरी रखी है। चानी थाली में घुस गई। वहाँ जी भरकर मीठी-मीठी चीनी खाई। फिर उसने सोचा कि अपनी सहेलियों को बुला लाती हूँ। सभी मिलकर यहाँ से चीनी ले जाएँगे ।

चानी ने चीनी का एक दाना अपनी सहेलियों को चखाने के लिए मुँह में दबाया और चल पड़ी।

रसोई के एक कोने में बैठा तिलचट्टा चानी की हरकतों को बड़े ध्यान से देख रहा था। वह कहने लगा-” बुरा न मानना बहन ! तुम इतनी देर से पेट भर के चीनी खा रही हो। फिर यह चीनी तुम किसलिए ले जा रही हो ?”

तिलचट्टा ने अपनी मूछों को फड़फड़ाया और बोला- “ओह! तुम चींटियों की बुद्धि का भी जवाब नहीं। एकदूसरे के लिए मरी जाती हो। यही कारण है कि तुम सारे दिन काम में जुटी रहती हो। अरे अपना-अपना काम अलग-अलग करो और कम समय में छुट्टी पा जाओ।”

” पर दादा ! साथ काम करने में, मिल-जुलकर रहने में जो आनंद है, वह अकेले में कहाँ है ?” चानी ने पूछा ।

तिलचट्टा बोला- ” अरी! अकेले काम करने में तो और भी आनंद है। जल्दी से अपना काम करो, छुट्टी पाओ फिर सारे दिन आराम करो। मुझे ही देखो जब भूख लगती है, खा लेता हूँ, फिर मजे से आराम करता हूँ। न किसी की चिंता और न किसी की परवाह। “

चानी चींटी भी तिलचट्टे की बातों में आने लगी। जैसा साथी होता है, वैसे ही विचार बन जाते हैं। चानी सोचने लगी कि मैं सुबह से शाम तक भाग-दौड़ करती ही रहती हूँ। मेरा पेट तो छोटा सा है।

जल्दी ही भर जाता है, फिर दूसरों के लिए क्यों मरूँ-खपूँ? क्यों न अकेले ही रहूँ ?

चानी तिलचट्टे से बोली- ‘तुम ठीक कहते हो दादा ! मैं भी तुम्हारी तरह मजे में अकेले ही रहूँगी।”

फिर चानी लौटकर अपनी सहेलियों के पास नहीं गई। तिलचट्टे की कुसीख से उसके विचार बदल गए। वह सोचने लगी कि मैं रहूँगी कहाँ ? जल्दी से नया घर बनाना चाहिए। पर इतनी जल्दी नया घर बनाना भी तो संभव न था ।

सहसा चानी को पेड़ पर बने कोटर का ध्यान आया। उसने सोचा ठीक है, कुछ दिन कोटर में ही रहूँगी। तब तक कुछ सामान जमा कर लूँगी, क्योंकि जल्दी ही सरदियाँ आने वाली हैं। इसके बाद घर बनाऊँगी ।

चानी ने पेड़ के कोटर में अपने लिए सामान जमा करना शुरू कर दिया। वह बार-बार रसोईघर में आती और चीनी के दाने मुँह में दबाकर ले जाती। इस तरह उसने काफी चीनी और अन्न इकट्ठा कर लिया ।

आते-जाते वह अपनी सहेलियों से मुँह छिपाती थी, उनसे बचकर जाती थी, जिससे वे कुछ पूछें नहीं । चानी यही सोचती थी कि अबकी सरदियाँ बड़े आराम से, बिना कुछ काम करे गुजारूँगी।

पर चानी का सोचना, सोचना भर ही रह गया। एक रात बड़ी तेज वर्षा हुई, खूब ओले पड़े। कोटर में अकेली पड़ी-पढ़ी चानी घबराने लगी। वह ठंढ से ठिठुर उठी। उसे अपनी सहेलियाँ की मिट्टी के गरम घर की याद आई। वर्षा होती जा रही थी। वर्षा की बौछारों ने चानी की सारी चीनी बहा डाली।

सारा कोटर भीग गया। उसमें चानी का टिकना असंभव हो गया, जैसे-तैसे वर्षा रुकी। चानी सूखी जगह की तलाश में कोटर से निकली, पर सारा पेड़ ही भीगा पड़ा था। कहीं पैर रखने की जगह नहीं थी।

अब चानी घूमते-घूमते थक भी बहुत चुकी थी। सहसा उसका पैर फिसला और वह नीचे गिर पड़ी। गिरकर वह बेहोश हो गई।

सुवह जब धूप निकली तब बहुत सी चींटियाँ पीपल के पेड़ की जड़ में बने अपने घर में से निकल पड़ीं। वह चिल्ला उठीं- “ अरे ! यह चानी तो यहाँ है। सप्ताह भर से हम इसे खोज रहे थे।”

सारी चींटियाँ चानी के आस-पास जमा हो गईं। सभी ने मिल-जुलकर उसकी सेवा की और जल्दी ही उसकी बेहोशी दूर कर दी।

चानी ने आँखें खोली तो सारी सहेलियों को अपने आस-पास जुटे पाया । अरे ! तुम ठीक तो हो न, तुम्हें क्या हो गया था ? तुम कहाँ चली गईं थीं? इस प्रकार वे अनेक प्रश्न कर रही थीं। उनकी बातें सुनकर चानी का दिल भर आया।

वह मन ही मन अपने आप को धिक्कारने लगी। वह सोच रही थी कि मैं कितनी स्वार्थी हूँ, कितने नीच विचारों की हूँ? अपनी इन ममतामयी सहेलियों को छोड़कर क्यों अलग हुई। दुःख-सुख में एकदूसरे से सहारा मिलता है। सभी मिल-जुलकर रहें, इसी में आनंद है।

चानी बोली – “मेरी प्यारी सहेलियो ! मैं रास्ता भूल गई थी। मैं तिलचट्टे के बहकावे में आ गई थी। मुझे माफ कर दो और फिर अपने साथ रख लो।”

‘अरे! तुम तो हमारे साथ ही रहोगी। हम तो सप्ताह भर से तुम्हें ढूँढ़-ढूँढ़कर परेशान हो रहे हैं।” सारी चींटियाँ कहने लगीं। फिर वे सभी चानी को अपने साथ बिल में ले गईं। वहाँ उसे खिलाया-पिलाया और खूब सत्कार किया।

“ईश्वर को धन्यवाद है कि मैं सही राह पर आ गई हूँ।” चानी ने मन ही मन में कहा। इसके बाद वह सभी के साथ मिल-जुलकर रहने लगी, काम करने लगी।

अब चानी दूसरों को सदा यही उपदेश दिया करती है कि मिल-जुलकर रहना चाहिए, इसी में आनंद है।

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