मित्र की पहिचान

अमरकण्टक वन में एक पेड़ के नीचे रानी चींटी का घर था । एक बार अमरकण्टक वन में अकाल पड़ा । उसकी वजह से जीव-जन्तुओं को खाना मिलना भी मुश्किल हो गया ।

रानी की सारी सेना, सारे ही परिवार के अकाल में मर गये । रह गयी अकेली रानी चींटी । सदस्य उस पहले तो रानी बड़ी ही उदास उदास रहती थी । फिर एक दिन वह सोचने लगी कि जो मुसीबत आने वाली है, वह तो आयेगी ही ।

आपत्ति को यदि हँसते-हँसते सहा जाये तो कठिनाई कम होती है । मुसीबत में साहस खोने पर और अधिक पेरशानी ही बढ़ती है । फिर मैं अपना धैर्य क्यों खोऊँ ? जीना है तो हँसते-हँसते ही जीऊँ, बहादुरी से जीऊँ । जो होना था वह तो हो ही गया ।’

रानी ने यह भी सोचा था कि अब अमरकण्टक छोड़कर और कहीं चला जाये । यहाँ परिवार का कोई और सदस्य तो बचा नहीं है । उल्टे यहाँ रहने से मित्रों की याद और सताती रहती है ।

रानी चींटी अपना घर छोड़कर चल दी । चलते-चलते वह अमरकण्टक वन से बहुत दूर चली गयी । रास्ते में उसने अनेक नगरों को पार किया । शहर की हलचल में रानी का मन लगता न था । इसलिये उसने सतपुड़ा की पहाड़ियों पर निवास करना ही पसन्द किया ।

एक दिन सुबह-सुबह रानी सतपुड़ा के पहाड़ी प्रदेश पर पहुँची । रानी के प्रवेश करते ही एक चींटी मिली । वह कहने लगी- ‘तुम कहाँ से आ रही हो बहिन ? लगता है बड़ी थकी हुई हो, आओ मेरा आतिथ्य स्वीकार करो ।’

रानी बतलाने लगी मैं अमरकण्टक वन से आ रही हूँ । कई दिनों से लगातार यात्रा कर रही हूँ । मेरे सभी सम्बन्धी मर चुके हैं । अब तो तुम मेरी सहेली ही बन जाओ जिससे मुझे भी कुछ राहत और खुशी होगी ।’

दूसरी चींटी कहने लगी- ‘तुम्हें अपनी सहेली बनाकर मुझे भी खुशी होगी । मुझे संगीता कहते हैं । चलो तुम मेरे घर चलो, वहीं पर रहना ।’ रानी ने आगे बढ़कर अपना मुँह संगीता के मुँह मिलाया और दोनों मित्र बन गर्यो ।

घर पहुँचकर संगीता ने एक विशेष प्रकार की ध्वनि की । तब उसकी सारी सेना और परिवार के लोग इकट्ठे हो गये । संगीता ने उन सभी से अपनी नई सहेली का परिचय कराया । सभी रानी से मिलकर बड़े ही खुश हुए ।

अंब रानी और संगीता साथ-साथ रहने लगीं । वे | साथ-साथ काम करती थीं और साथ-साथ ही घूमती थीं । रानी ने संगीता को नई-नई चीजें दिखायी थीं, जैसे कि नये तरीके से घर बनाना, बच्चों को अच्छी तरह पालना आदि । इन सभी के कारण संगीता और उसकी सेना की सारी चींटियाँ रानी को बड़े सम्मान के साथ देखती थीं ।

संगीता अपनी सेवक चींटियों से कहती थी- ‘जो जितना गुणवान होता है, | उसका उतना ही आदर होता है । अगर तुम दूसरों से सम्मान चाहती हो तो गुणी बनो ।’ वह हमेशा उदाहरण के रूप में रानी का नाम लिया करती थी ।

एक दिन की बात है कि संगीता और रानी अपनी कुछ सहेलियों के साथ घूमने निकलीं । रास्ते भर वे बड़ी प्रसन्नता से गीत गाती गयीं । जगह-जगह ठहरकर तरह-तरह का नाश्ता भी करती गयीं । घूमते-घूमते सभी तालाब के किनारे पहुँचीं ।

वहाँ एक संजीव नाम का सारस रहा करता था। वह संगीता का मित्र था, उसने संगीता को एक कमल का फूल उपहार दिया । संगीता ने संजीव सारस को इसके लिये धन्यवाद दिया । संजीव वापस लौट गया ।

तब संगीता तालाब के किनारे अपनी सहेलियों के साथ बैठकर उस कमल के फूल का पराग खाने लगी । सबने खूब छककर उसकी दावत उड़ायी । इसके बाद वे सारी की सारी चींटियाँ पानी पीने तालाब के किनारे उतरीं ।

और तो सब पानी पीकर ठीक से आ गयीं । परन्तु संगीता का पैर फिसल गया । वह पानी में गिर पड़ी । संगीता चीखने लगी- ‘बचाओ- बचाओ ।’

संगीता की पुकार सुनकर सारी की सारी चींटियाँ तालाब के किनारे पर आ गयीं । सभी खड़ी खड़ी यही सोचती रहीं कि क्या करें, कैसे इसको बचायें ? नींतू चींटी बोली- ‘चलो कहीं से बड़ा-सा तिनका लायें ।’ हंसू बोली- ‘कहीं से पत्ता खींच लायें ।’

सभी चींटियाँ आपस में बात कर ही रही थीं कि रानी अपनी जान की परवाह किये बिना पानी में कूद पड़ी । वह एक पत्ते के टुकड़े पर कूदी थी । पूरी बहादुरी से उस पत्ते को धकेलती हुई रानी संगीता के पास ले गयी ।

फिर अपना हाथ बढ़ाकर तुरन्त उसने संगीता को पत्ते पर खींच लिया । फिर पत्ते को खींचती हुई रानी तालाब के किनारे आ गयी ।

तालाब के किनारे खड़ी सभी चींटियाँ रानी का साहस देखकर हैरान थीं । वे अभी सोच ही रही थीं कि रानी अपनी जान की परवाह न करके संगीता को बचा लाई थी । सभी चीटियों ने मिलकर उस पत्ते को किनारे पर खींच लिया । जिस पर रानी और संगीता बैठी हुई थीं । थोड़ी देर बाद संगीता पूरी तरह ठीक हो गयी ।

रानी का उपकार देखकर संगीता की आँखों में पानी भर आया था । वह रानी के गले से लिपटते हुए बोली- ‘बहिन ! आज तुमने स्वयं को खतरे में झोंककर भी मेरे प्राणों की रक्षा की है । यदि मुझे पानी में तनिक भी देरी हो जाती तो मेरा मरा हुआ शरीर ही शेष रहता ।’

‘ऐसा न कहो संगीता बहिन ! बुरी बात मुँह से नहीं निकालते ।’ अपने एक हाथ को संगीता के मुँह पर रखकर रानी कह रही थी ।

‘मित्र की सहायता करना मित्र का धर्म है । जो समय पड़ने पर मित्र की सहायता नहीं करता, वह सच्चा मित्र नहीं हुआ करता । वह तो मित्र होने का बहाना मात्र ही करता है । तुम्हारे लिये जो कुछ भी मैंने किया है, वह तो मेरा कर्तव्य था । वह सब तो मुझे करना ही चाहिये था ।’

अब संगीता की समझ में आ गया था कि वास्तव में | उसकी सच्ची मित्र कौन है । सारी सहेलियों के रहते हुए भी संगीता के आज निश्चित ही प्राण चले जाते, यदि रानी न होती ।

उस दिन से उसके मन में रानी के प्रति आदर-सम्मान की भावना और अधिक बढ़ गयी है । सहेलियों की समझ में भी यह बात आ गयी कि मित्र के अब संगीता की मुसीबत में पड़ने पर अपने प्राणों की परवाह न करके उसकी रक्षा करनी चाहिये ।

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