गायों की गोष्ठी

उस दिन एक बड़े चारागाह में बहुत-सी गायें इकट्ठी हुई । गायों के झुण्ड से पूरा चारागाह भर गया । हरी-हरी घास चरती, इधर-उधर घूमत- भार्ती, जुगाली करती गायें बड़ी ही प्यारी लग रही थीं ।

बरसात का मौसम था । आसमान में हल्के-हल्के बादल छाये थे । ठण्डी-ठण्डी हवा बह रही थी । जब पेट भर चुका तो सारी गायें जुगाली करने आस-पास घेरा बनाकर बैठ गर्यो । बूढ़ी सोना गाय उस दिन उदास बैठी थी ।

नीला से न रहा गया, वह बोली- ‘क्या बात है चाची ! आज तो तुम बहुत ही सुस्त बैठी हो, बीमार हो क्या ?’ सोना ने सिर ऊपर उठाया । सारी गायें आपसी बात-चीतें बन्द करके उसकी ओर देखने लगीं ।

सोना कहने लगी- ‘क्या बताऊँ बच्चियो तुम्हें अब मैं बूढ़ी होती जा रही हूँ न । मालिक को दूध भी नहीं दे पाती । दूध न पाने के कारण मैं मालिक के लिये बेकार हो गयी हूँ । वह मुझे दुत्कारते ही रहते हैं । डर है कि कहीं किसी कसाई को ही न दे दें। मैं तो भगवान से हर पल बस अपनी मौत की कामना करती रहती हूँ ।’

यह सुनकर काली गाय को बड़ा गुस्सा आया । वह अपने | सींगों को जोर से हिलाती हुई बोली-‘यह मनुष्य बड़े ही स्वार्थी होते चले जा रहे हैं । तुम्हारे मालिक के सारे बच्चे तुम्हारे ही दूध से पलकर बड़े हुए हैं । एक प्रकार से तुम उनकी माँ हुईं । तुम पर अत्याचार करने में उन्हें शर्म आनी चाहिये ।’

पीला बोली- ‘मैं तो एक बात पूछती हूँ कि उनके माता-पिता बुड्ढे और अनुपयोगी हो जायेंगे तो वे उन्हें भी किसी कसाई को पकड़ा देंगे ?’

‘यही तो सोचने की बात है।’ श्यामा ने कहा । श्वेता बोली- ‘मैंने सुना है कि हजारों वर्ष पहले भारतवर्ष के निवासी हमें मौं कहते थे। मौं के समान हमारी पूजा और सम्मान करते थे ।

हम पर, हमारे बैल और बछड़ों पर उनकी सारी अर्थ व्यवस्था आधारित थी । गौ-पालन और कृषि ही उनकी जीविका का प्रमुख साधन था । सोना और काली गरदन धीरे-धीरे हिलाकर बोलीं- ‘सभी जीव- प्रणियों में एक ही आत्मा निवास करती है । सभी को सुख-दुःख की समान रूप से अनुभूति होती है । फिर मनुष्य न जाने क्यों हम पशुओं से बुरा व्यवहार करते हैं ?’

“तुम इनके दुर्व्यवहार की बात न कहो बहिन ! मेरी भी सुनो कि मेरे नन्हें बछड़े को दुष्ट दूध नहीं पीने देते । बछड़ा बेचारा रँभा कर रह जाता है । बचा खुचा दस-बारह बूँद भर दूध ही उसे मिल पाता है ।’ काली ने कहा ।

पीला बोली- ‘और मुझे मालिक पेट भर खाना नहीं देते । बस हरदम यही कोशिश करते हैं कि कैसे भी अधिक से अधिक दूध मेरे थनों से निचोड़ लें ।’

श्वेता ने कहा- ‘मेरे मालिक के बच्चे इतने शरारती हैं कि कभी मेरी पूँछ मरोड़ते हैं, तो कभी तंग करने के लिये डण्डे मारते हैं । मालिक हैं कि उनकी करतूत पर हँसते रहते हैं । उनसे मना तक नहीं करते, उनकी भाषा में बोल नहीं सकते तो क्या ? हम में भी प्राण हैं, हमें भी तो कष्ट होता है ।’

‘बच्चे भला क्या जानें, क्या उचित है क्या अनुचित ? बच्चों को तो बचपन से ही सिखाना पड़ता है । यदि माता-पिता ऐसा नहीं करते तो बच्चे बिगड़ेंगे ही, साथ ही वे भी किसी दिन खूब पछतायेंगे ।’ आभा बोली ।

नन्दा कह रही थी – ‘ पिछले सप्ताह की ही बात है । मैं बहुत ही बीमार पड़ गयी । पूरे छः दिन मैंने कुछ न खाया । मेरा मालिक यों तो पुचकारता रहा, पर उससे यह नहीं हुआ कि मुझे किसी डाक्टर को दिखा भी दे । कोई जड़ी-बूटी मुझे ला देता । घर में कोई बीमार पड़ता है तो क्या उसके लिये दवा नहीं लाते ?’

सोना कहने लगी- ‘सभी के साथ कुछ न कुछ समस्या है ही । हम अपनी भाषा में आँखों में मौन भाव भरकर इन मनुष्यों न जाने क्या-क्या कहती हैं, पर लगता है मौन भावों को समझने में तो ये मनुष्य बिलकुल असमर्थ हैं या फिर ये समझकर भी नहीं समझना चाहते ।’

आभा ने गुस्से में भरकर खुरों से जमीन खोदते हुए कहा- ‘सुनो ! सुनाती हूँ इन सब मनुष्यों की नृशंसता की पराकाष्ठा तुम्हें । मैंने सुना है कि गाभिन का गर्भ गिराकर, बिना जन्मे बछड़े की खाल से ये मनुष्य फैशन की चीजें पर्स सैण्डिल आदि बनाते हैं । ये चीजें बिकती भी खूब मँहगी हैं ।

‘ओह यह तो राक्षसी प्रवृत्ति-अत्याचार की अति है । सभी गायें दुःख से कराह कर एक साथ चिल्ला उठीं ।’

कौन समझाये इन मनुष्यों को कि अपनी फैशन के लिये, झूठी शान के लिये वे न जाने कितने निरीह प्राणियों को दुःख देते हैं, उनकी हत्या कर देते हैं । फैशन, झूठी शान के नाम पर वे कम से कम जानवरों की खाल से बनी ऐसी चीजें तो न अपनायें, जिनमें किसी निरीह प्राणी की आहें बसी हों ।’ पीला ने बड़े ही वेदना भरे स्वर में कहा ।

काली बोली- ‘हमें भी इन मनुष्यों की भाषा आती, तो उनसे कहते कि हम जीवन भर तो पूरी शक्ति से पूरे मन से तुम्हारी सेवा करते हैं । जो दूध वास्तव में हमारे बच्चों के लिये है, वह सारा का सारा तुम्हें दे देते हैं । हमारा गोबर तक तो तुम्हारे लिये बेकार नहीं है ।

उससे तुम अच्छी खाद बनाते हो, कण्डे बनाकर ईंधन का काम लेते हो । मर जाने पर हमारी खाल तुम्हारे काम आती है । फिर तुम सबका भी यह कर्तव्य हो जाता कि हमारे साथ बुरा व्यवहार न करो। हमें भर पेट खाना दो। हम पर बात-बात पर डण्डे मत बरसाओ । दूध न देने पर भी हमारा पालन करो ।

हमारी पहली सेवाओं को याद करके हमें कसाई को न पकड़ाओ । हम भी प्राणी हैं, हमें भी दुःख पहुँचता है । हमारे साथ वह व्यवहार न करो, जो तुम्हें अपने लिये पसन्द नहीं ।’ तभी दूर बैठा, बाँसुरी बजाता नन्दू ग्वाला गायों को घर ले चलने के लिये आ गया ।

‘भगवान् इन मनुष्यों को सद्बुद्धि दे कि वे जीवों पर दया करें। सोना ने कहा और सारी गायें घर चलने के लिये उठ खड़ी हुईं।

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