यात्रा
गंगोत्री भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। हिमालय पर्वत से उतरकर गंगा की धारा जहाँ समतल मैदान में आती है वह स्थान ही गंगोत्री है। प्रकृति की सुदंरता को देखने का यह बड़ा ही सुदंर स्थान है।
मनीष और प्रशांत ने भी इसी बार गर्मियों में गंगोत्री जाने का विचार किया। वे दोनों घनिष्ठ मित्र थे। उन्होंने सोचा कि इसी बहाने प्रकृति की सुंदरता को बहुत पास से देखने का अवसर मिलेगा और एक तीर्थ की यात्रा भी हो जाएगी।
वे दोनों ऋषिकेश से उत्तरकाशी बस से पहुँचे। वहाँ से उन्होंने गंगोत्री तक जाने के लिए दूसरी बस ली। उन्हें तो मालूम हुआ था कि गंगोत्री जाने के लिए बस से उतरकर केवल दो किलोमीटर चलना पड़ेगा।
संयोग की बात कि बीच रास्ते में ही बड़ी जोर का आँधी-तूफान आया जिससे बस का रास्ता बंद हो गया। बस ने उनको गंगोत्री से लगभग तीस किलोमीटर दूर एक गाँव के पास छोड़ दिया। यहाँ से गंगोत्री तक उन्हें पैदल ही जाना था।
यह सब देख-सुनकर प्रशांत एकदम हड़बड़ा गया। वह मनीष से कहने लगा-‘ओह, हम इतनी दूर पहाड़ी रास्ते पर पैदल कैसे चढ़ पाएँगे भाई, आगे जाने का तो मेरा वश नहीं। चलो हम आस-पास के स्थान देख लें और वापिस चले चलें।
मनीष यह सुनकर ठहाका लगाकर हँस पड़ा और बोला- वाह, क्या खूब बात कही। अरे ऐसी निराशा भरी कायरता की बातें शोभा नहीं देतीं। हम धीरे-धीरे आराम से चलेंगे। जब यहाँ तक आए ही हैं तो फिर गंगोत्री के दर्शन न करके लौटना भी भला क्या बुद्धिमानी है ? अच्छे व्यक्ति जिस कार्य की सोच लेते हैं, उसे पूरा करके ही रहते हैं।’
मनीष की बात सुनकर प्रशांत कुछ चिढ़-सा गया और बोला- ‘हम दोनों साथ-साथ आए हैं। तुम्हें मित्र का भी आखिर कुछ ध्यान रखना चाहिए।’
मनीष उसी सहज मुस्कान के साथ बोला- भाई मुझे तुम्हारा पूरा-पूरा ध्यान है। जरूरत होगी तो मैं तुम्हें पीठ पर भी ले चलूँगा। रास्ते में हर प्रकार से तुम्हारी सेवा करूँगा। इस सबके लिए मैं पूरी तरह से तैयार हूँ। तुम्हें तो बस प्रसन्नतापूर्वक चलना होगा। चलते-चलते जहाँ तुम रुक जाओगे, वहीं मैं भी रुक जाऊँगा। थक जाने पर तुम्हारे पैर भी दबा दिया करूँगा।’
प्रशांत ने देखा कि मनीष किसी भी प्रकार वापिस लौटने के लिए तैयार नहीं है। उसने यह भी समझ लिया कि मना करने पर वह अकेला ही आगे बढ़ जाएगा। अतएव बेमन से प्रशांत आगे बढ़ने के लिए तैयार हुआ।
पहाड़ी पगडंडी पर दोनों बढ़ चले। उनके आगे और भी अनेक यात्री चले जा रहे थे। वे दोनों तो वाद-विवाद में ही उलझे रहे थे जब कि दूसरे काफी आगे बढ़ गए थे।
रास्ते में प्रशांत ने देखा कि मनीष उससे सदैव आगे रहता है। बड़े ही उत्साह से वह कठिन रास्ता भी पार कर लेता है और हाथ पकड़कर उसे भी पार करा देता है। वह पहाड़ों पर पहली बार आया था पर ऐसे चल रहा था जैसे पहाड़ी रास्ते उसके जाने-पहचाने हैं।
यह देखकर प्रशांत से न रहा गया और वह पूछ बैठा-मनीष, तुम यहाँ पहली बार आए हो, पर तुम इतनी आसानी से पहाड़ी रास्ते पर कैसे चल लेते हो ? कैसे तुम दूसरों को भी रास्ता बता देते हो ? रास्ते में तुम्हारे मुख पर कहीं भी थकान के चिह्न तक दिखाई नहीं देते। तुम तो मुझसे भी दुबले-पतले और छोटे हो। तुम्हें तो मुझसे भी पहले थकना चाहिए।
मनीष कहने लगा-दोस्त’ यो शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है। पर शरीर को संचालित करने वाला मन होता है। मन का उत्साह ही शरीर को आगे बढ़ाता है। आशावादी दृष्टिकोण ही जीवन को
सफल बनाता है। हम जैसा अपना दृष्टिकोण बना लेते हैं, वैसी ही परिस्थितियाँ भी बन जाया करती हैं। अतएव हर स्थिति में हम प्रसन्न रहें, हर काम में सफल होने का उत्साह रखें-फिर देखें कि कौन-सी परिस्थिति हमें खिन्न बनाती हैं, कौन-सी से हमारा काम अधूरा रह जाता है।’
मनीष की बातें सुनकर प्रशांत का उत्साह भी बढ़ गया। वह भी अब प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़ने लगा। उसने पाया कि उसकी गति में भी अंतर आ गया। पहले की अपेक्षा वह जल्दी से रास्ता पार कर लेता है। मन में प्रसन्नता बने रहने से थकान भी नहीं लगती।
रास्ते के सुंदर दृश्यों का आनंद लेते हुए घूमते-घामते वे चार दिन में गंगोत्री पहुँच गए। वहाँ का दृश्य देखकर वे ठगे से रह गए। लगभग २० मीटर की ऊँचाई से छ-सात मीटर चौड़ी गंगा की धारा गिर रही थी। चाँदी से साफ चमकीले जल से ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थीं। जल पर सूरज की किरणें पड़कर उसे सतरंगी इंद्रधनुष-सा बना रही थीं।
‘ओह, तुम्हारे ही कारण मैं यह दुर्लभ दृश्य देख सका हूँ’ कैमरे में उस दृश्य को अंकित करते हुए, भावविह्वल होता हुआ प्रशांत कहने लगा।
मनीष मुस्करा उठा और बोला- मैं तो पहले ही जानता था कि तुम सामने खड़ा ऊँचा पहाड़ देखकर व्यर्थ ही डर रहे हो। भाई, कोई भी कार्य असंभव नहीं हुआ करता । धैर्य और निरंतर तत्परता से हर काम सरल बन जाता है। कोई भी काम तभी तक कठिन लगता है जब तक कि हम उसे प्रारंभ नहीं करते। ‘सो तो देख ही रहा हूँ, प्रशांत बोला।
मनीष कहने लगा-देखो यहाँ आकर अब तुम्हें इतना सबक तो ले ही लेना चाहिए कि जीवन में निराशा भरी नहीं आशा और उत्साह से ही भरी बातें सोचोगे। किसी भी काम को करने से पहले यह नहीं हो सकता, ऐसा नहीं कहोगे-इससे हमारी शक्ति क्षीण होती है।मिलने वाली सफलता दूर हटती चली जाती है।
‘ठीक ही कहते हो बंधु ! आज मैं यहाँ यही संकल्प लेता सफल और सुखी जीवन के लिए यह आवश्यक है। प्रशांत ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा । फिर दोनों मित्र लौट पड़े। अबकी बार उन्हें कुछ ही मील चलना पड़ा। रास्ता बन चुका था अतएव जल्दी ही उन्हें बस मिल गई। वे बस में बैठकर ठीक प्रकार से अपने घर पहुँच गए।
गंगोत्री की यात्रा ने प्रशांत का न केवल शरीर और मन ही स्वस्थ बना दिया था। अपितु जीवन की परिस्थितियों के प्रति उसका दृष्टिकोण भी आशावादी बना दिया था। प्रशांत इसके लिए अभी भी मनीष का बड़ा ही आभारी है।