कहानी एक चित्र की

‘देखो । शशांक यह चित्र कैसा है ?’ राकेश ने एक चित्र ! दिखाते हुए अपने मित्र से पूछा । ‘सुन्दर, बहुत ही सुन्दर ।’ शशांक उसे देखकर उछल पड़ा ।

फिर पूछने लगा–‘ पर दोस्त ! तुमने इसे कैसे बनाया है ?’ ‘कबूतर, चिड़ियों के झड़े हुए पंखों और जली हुई तीलियों आदि बेकार की चीजों से बना है । मेरी माँ ने इन बंकार की वस्तुओं का उपयोग करना सिखाया है।’ राकेश ने उत्तर दिया ।

शशांक उस चित्र को दो पल ठगा-सा देखता रहा । फिर मन ही मन उसने सोचा कि वह उससे भी अच्छा सुन्दर चित्र बनाकर राकेश को दिखायेगा । कई दिनों तक शशांक सोचता रहा । फिर सहसा ही उसे एक विचार आया कि यदि पूरा चित्र तितलियों के पंखों से बनाया जाय तो वह बड़ा ही सुन्दर लगेगा ।

फिर क्या था ? शशांक अपने विचार को पूरा करने में जुट गया। उसके घर के पास ही उसके मित्र का एक बहुत बड़ा बाग था । वह प्रतिदिन उसमें जाने लगा ।

पर तितलियों के झड़े हुए पंख खोजने में शशांक को बड़ी ही परेशानी हुई । यों उस बाग में रंग-बिरंगी, मनभावनी अनेकों तितलियाँ उड़ती थीं । एक फूल से दूसरे फूल पर मँडराती थीं, पर वहाँ मरी हुई तितलियों के पंख बहुत ही कम मिल पाते थे ।

शरारती शशांक ने अब दूसरा ही उपाय निकाल लिया । वह फूलों का रस पीती तितलियों को धागा फँसाकर पकड़ने लगा । धागे में फँस कर तितलियाँ छटपटात, पर शशांक उन्हें छोड़ने का नाम भी न लेता । उल्टे उनकी छटपटाहट देखकर प्रसन्न ही होता ।

बाग के रखवालों को शशांक की यह आदत तनिक भी अच्छी नहीं लगती । वे बार-बार कहते- ‘देखो शशांक किसी भी जीव ! को कष्ट देना अच्छी बात नहीं । जो आत्मा हममें है, वही सब में है ।

जैसे हमें शरीर से कष्ट होता है, वैसे ही छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं को भी होता है । हम कुछ कर पायें तो उनकी सेवा-सहायता ही करें। उन्हें दुःख देना हमारी मूर्खता है ।” पर शशांक था कि उस पर इन बातों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता था । वह एक कान से सुनता था और दूसरे कान से निकाल देता था ।

एक दिन शशांक आम के पेड़ की छाया में बैठकर चित्र बना रहा था। तभी चुपचाप उसके पिता के मित्र और बाग के मालिक उसके पीछे आकर खड़े हो गये । बाग के रखवाले से उन्हें सारी बात पहले से ही पता लग चुकी थी। उन्होंने पीछे से आकर शशांक का चित्र छीन लिया और उसके देखते-देखते टुकड़े-टुकड़े करके उसे हवा में उड़ा दिया ।

यह देखकर शशांक स्तब्ध रह गया । तभी उसने सुना कड़कती आवाज में, उसके मित्र के पिताजी कह रहे थे- ‘समझ में नहीं आता कि आखिर क्या सोचकर तुमने तितलियों को मारना शुरू किया ? क्यों तुम्हें नाचती, बलखाती, जीती-जागती तितलियाँ नहीं भार्यी और तुम उनके प्राण लेने के लिये उतारू हो गये । तुम मनुष्य नहीं राक्षस हो ।’

राक्षस ! राक्षस कैसे चाचाजी ?’ शशांक के मुँह से बस इतना ही निकला ।

‘जो अपने थोड़े से सुख के लिये, थोड़े से स्वार्थ के लिये, क्षणिक प्रसन्नता के लिये दूसरों को सताये और उनके प्राणों को भी ले ले, वह राक्षस नहीं तो और क्या है ? मनुष्य कहलाने का अधिकारी तो वही होता है, जो औरों के लिये हँसते-हँसते अपने सुखों को न्यौछावर कर देता है ।’ चाचाजी गम्भीर होकर कह रहे थे ।

शशांक चुपचाप सिर झुकाये सुनता रहा । चाचाजी फिर बोले-‘सोचो तो जरा ! जितनी तितलियाँ तुमने मारी हैं, सारी की सारी तुम्हारे शरीर से आकर चिपक जायें, मुँह पर फड़फड़ाने लगें, तुमसे बदला लेने लगें, तो कैसा लगेगा तुम्हें ? याद रखो किसी को सताकर हम कभी सुखी नहीं रह सकते । कभी न कभी हमको इसका दण्ड मिलता ही है । ईश्वर के यहाँ देर हो सकती है, पर अन्धेर नहीं ।’

अपराधी-सा शशांक कह रहा था-‘मैंने सोचा था चाचाजी कि एक सुन्दर – सा चित्र बन जायेगा ।’

‘बेटे ! तुम्हें चित्र बनाना है, तो रंग-बिरंगे फूलों की पंखुड़ियों से तरह-तरह के पत्तों से बनाओ । वह सौन्दर्य, जिसके मूल में प्राणों की बलि हो उसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती । उसकी तो जितनी उपेक्षा की जाये, जितनी निन्दा की जाये वह बहुत कम है ।’ चाचाजी ने कहा ।

‘आगे ऐसा नहीं करूँगा ।’ यह कहकर शशांक चुपचाप वहाँ से चल दिया । अपनी गलती उसकी समझ में आ रही थी । रास्ते भर वह सोचता जा रहा था कि चाचाजी ठीक ही कह रहे थे कि अपने स्वार्थ के लिये दूसरों का अहित करना मनुष्यता नहीं है ।

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