मित्रता का अन्त
अन्ना चुहिया बड़ी आलसी थी। कुछ काम-काज न करती तो न सही, पर जुबान की भी बड़ी तीखी थी। वह इतनी कड़वी बातें करती कि सभी का जी उससे भर गया ।
एक दिन उसकी किसी बात से नाराज होकर सभी चूहे-चूहियों ने उसे बिल से बाहर निकाल दिया । बिना सोचे-समझे बोलने वाला, कटु बोलने वाला दूसरों से तिरस्कार ही पाता है । अन्ना अकेली रहने के लिये चल पड़ी । रास्ते में उसे
सुन्दर-सा हरा-भरा बगीचा दीखा । अन्ना को रहने के लिये यह स्थान बहुत ही पसन्द आया | वह उस बगीचे में घुस गयी । वहाँ अन्ना ने बिल बना लिया । खाने-पीने की चीजों की कमी न थी । बगीचे में बहुत फल यों ही हवा के झोकों से गिर जाया करते थे । उन्हें अन्ना बड़े मजे से खाया करती ।
जब कभी फल खाने से मन भर जाया करता तो बगीचे के पास ही भोला की रसोई में घुस जाती । वहाँ अनेक प्रकार के पकवान खाती, पर खाना ढूँढ़ने के लिये अन्ना को अब मेहनत तो करनी ही पड़ती थी । उसकी आदत तो बिना परिश्रम किये खाने की पड़ गयी थी । इसलिये अन्ना को यह अच्छा न लगता था, पर मजबूर थी ।
पेट में जब जोरों की भूख लगती तो खाना ढूँढ़ने जाना पड़ता । अन्ना अकेली – अकेली बड़ी उदास रहने लगी । उसने सोचा कोई मित्र बनाया जाय । अकेलापन भी दूरे होगा और समय पर कुछ सहायता भी मिलेगी ।
एक दिन अन्ना ने एक बड़ी चींटी को देखा । वह कचनार के पेड़ के नीचे लेटी थी । चींटी ठण्डी-ठण्डी हवा का आनन्द ले रही थी । उसके मुख पर प्रसन्नता और संतोष झलक रहा था, उसे देखकर अन्ना बड़ी प्रभावित हुई ।
वह उसके पास गयी और बोली- ‘प्यारी चींटी ! मैं तुमको अपना मित्र बनाना चाहती हूँ । क्या तुम बनना चाहोगी ?’
चींटी उसकी बात सुनकर बैठ गयी। वह विनम्रता से बोली- ‘देखो बहिन ! मित्र तो बहुत सोच-समझकर ही बनाना चाहिये । जो समान स्वभाव के, समान गुणों के और बफादार होते हैं, उन्हीं की मित्रता सफल होती है ।’
‘पर बहिन में इस उद्यान में अकेली हूँ । मेरा कोई साथी नहीं है, यदि तुम मेरा प्रस्ताव मान लेती हो, तो मुझ पर बहुत बड़ा उपकार होगा ।’ अन्ना ने प्रार्थना की ।
चींटी कुछ सोचते हुए बोली- ‘तुम्हारी बात सुनकर मेरा मन | दया से भर गया है । चलो, मैं तुम्हें मित्र बनाना स्वीकार करती हूँ, पर ध्यान रखना ! सच्चे मित्र की पहिचान है अपने मित्र का सदैव सदैव हित सोचना, उसे सही सलाह देना और समय पर उसकी सहायता करना ।’ ‘तुम देखना कि तुम्हारी कितनी अच्छी मित्र सिद्ध होती हूँ ।’ मुँह फिराकर अन्ना बोली ।
‘मेरा नाम राज है । इसी कचनार के पेड़ की जड़ में ही मेरा घर है। चींटी ने अपने हाथ से इशारा करते हुए कहा । जल्दी ही अन्ना और राज की मित्रता पक्की हो गयी । अन्ना बड़ी खुश थी, क्योंकि उसका अकेलापन अब दूर हो गया था । राज के साथ उसका मन खूब ही लगा रहता था। वे दोनों साथ-साथ घूमती थीं ।
गर्मी और बरसात इस प्रकार आराम से कट गये । बरसात के एक दिन राज बोली-‘अन्ना बहिन ! कल से अब मैं तुम्हारे साथ अधिक घूम न पाऊँगी ।’
अन्ना को लगा कि कहीं किसी बात पर राज नाराज तो नहीं हो गयी है । उसने घबराते हुए पूछा- ‘क्यों ?’
‘इसलिये कि अब जाड़े आने वाले हैं। जाड़ों से पहले मुझे खाने-पीने का सामान इकट्ठा करना है ।’ राज बोली ।
अन्ना तुनक कर बोली- ‘ओह ! तो इसमें तुम्हें परेशान होने की क्या बात है ? धीरे-धीरे जोड़ती रहना ।
राज बोली- नहीं ! मेरी प्यारी बहिन यह संभव नहीं है । मुझे तो जाड़े आने से पहले ही बहुत काम करना है । अब कल से तुम्हारे साथ बिल्कुल भी घूम नहीं पाऊँगी । गर्मियाँ आने तक के लिये विदा ।’
यह सुनकर अन्ना का मन बड़ा दुःखी हुआ। वह सोचने | लगी कि जैसे-तैसे तो यह मिली है। अब इसका भी साथ छूटा जा रहा है । वह कुछ देर तक उदास-सी बैठी रही । फिर सहसा ही उसे एक उपाय सूझा ।
खुशी से चमकते हुए अन्ना कहने लगी- ‘सुनो राज ! तुम्हारी समस्या मैंने हल कर दी । खाने-पीने का सामान इकट्ठा करने में भी मैं तुम्हारी सहायता करूँगी । तुम तो बहुत छोटी-सी हो । एक बार में थोड़ा-सा ही ला पाओगी ।
तुम अपने साथ मुझे ले चलना, मैं एक बार में बहुत-सी चीज ले आऊँगी । इस प्रकार जल्दी-जल्दी तुम्हारा राशन पूरा हो जायेगा । फिर हम आराम से अब की तरह घूमा करेंगे ।’
दूसरे दिन अन्ना ने राज को बहुत मना किया कि वह स्वयं अपना काम करेगी, पर अन्ना ने एक न सुनी। वह बोली- ‘सुनो ! ऐसा करो कि तुम मुझे यह बताती जाना कि कौन-सी चीज कहाँ रखी है ? क्या लेकर आना है ?
तुम्हारी सूँघने की शक्ति बहुत तेज है । अतएव तुम यह काम आसानी से कर पाओगी। तुम मेरी पीठ पर चढ़ जाओ, दोनों साथ-साथ चलती हैं ।’
राज झिझक रही थी, पर अन्ना ने बहुत आग्रह किया आखिर में राज उसकी पीठ पर चढ़कर बैठ गयी। दोनों सहेलियाँ अन्न की खोज के अभियान में जुट गर्यो ।
दो-तीन दिन तक यही क्रम चलता रहा। वे अक्सर ही भोला की रसोई में घुस जातीं । कभी कुछ उठा लात, तो कभी कुछ । राज बड़ी खुश थी, वह मन में सोचती थी कि देखो समर्थ से मित्रता करना कितना सुख देता है ?
मैं अब तक सोचा करती थी कि अन्ना आलसी है, लापरवाह है। अब तो हर साल यह मेरी ऐसी ही सहायता करेगी । आह ! दूसरी चींटियाँ महीनों काम में जुटीं रहेंगी और मैं झटपट अपना काम पूरा कर मौज मनाऊँगी ।
पर राज का यह सोचना सच नहीं हुआ । चौथे दिन ही एक दुर्घटना घट गयी । हुआ यह कि भोला की माँ रोज-रोज अन्ना के रसोई में घुसने से तंग आ गयी । उसने एक चूहेदान में रोटी का एक बड़ा-सा टुकड़ा लगाकर रख दिया । अन्ना जैसे ही रोटी लेने उसमें घुसी, वह खट से बन्द हो गया ।
अब तो अन्ना और राज दोनों ही चूहेदान में बन्द हो गयीं अन्ना ने बहुतेरे हाथ-पैर मारे पर वह चूहेदान का दरवाजा खोलने में सफल न हो सकी । दो घण्टे के लगातार प्रयास के बाद अन्ना थककर बैठ गयी । उसके मुँह से खून निकलने लगा था और हाथ-पैर दर्द करने लगे थे ।
राज के कारण ही मुझे इस प्रकार बन्द होना पड़ा था । अब तो निश्चित ही मेरे प्राण संकट में हैं।’ ऐसा सोचकर अन्ना को राज पर बड़ा गुस्सा आया । वह पास ही चुपचाप उदास बैठी राज पर बड़ी नाराज हो रही थी ।
राज बोली- ‘नाराज क्यों होती हो ? मैंने तो खुद ही कहा था कि मैं अपना काम खुद कर लूँगी । तुम ही नहीं मानी थीं, पर अब गुस्सा करने से लाभ ही क्या है ? तुम्हारे छूटने का कोई उपाय सोचती हूँ ।’
‘बड़ी आयी तू उपाय सोचने वाली ।’ तू क्षुद्र प्राणी भला मुझे कैसे छुड़ायेगी ? अब तू ज्यादा बक-बक न कर । मेरी आँखों के आगे से दूर हो जा, आँखें लाल-लाल करके अन्ना बोली । साथ ही उसने बहुत जोर से अपनी पूँछ घुमाकर राज के मारी और उसे दूर धकेल दिया ।’
राज को बड़ी चोट लगी । उसका पैर तुरन्त ही टूट कर अलग हो गया । दर्द से कराह उठी वह, उसका मन भी बड़ा दुःखी हो रहा था । लँगड़ाती हुई वह चूहेदान के बाहर निकली तभी उसने देखा की भोला की माँ चूहेदान उठा रही है ।
‘जरूर अब वह अन्ना को मारेगी ।’ राज ने मन में सोचा। उसने जोर से भोला की माँ के पैर पर काट खाया । अचानक ही भोला की माँ के हाथ से चूहेदान छूट पड़ा । छूटते ही वह खुल गया, खुलते ही अन्ना उसमें निकल भागी । उसने पीछे मुड़कर एक बार भी राज की ओर न देखा ।
राज जैसे-तैसे लँगड़ाते हुए अपने बिल में पहुँची । उसकी यह दुर्दशा देखकर अनेकों चींटियाँ दौड़ी चली आयीं । उन्होंने अनेकों उपचार किये, तब कहीं जाकर पैर का दर्द कुछ कम हुआ ।
राज अभी भी लँगड़ाती हुई चलती है । वह ठीक से काम नहीं कर पाती, पर उसके बिल की रानी चींटी ने कह दिया है-‘ आसानी से जितना काम कर सकती हो, करो । आज यदि तुम काम नहीं कर पा रही हो, तो क्या हम तुम्हें निकाल देंगे ? नहीं कदापि नहीं । तुम अधिकारपूर्वक इस बिल में रहो ।’ और आज भी राज सभी चींटियों के बीच सम्मानपूर्वक रहती है । पर हाँ, वह लँगड़ी कैसे हुई ?
इसका रहस्य केवल वही जानती है । उसे अन्ना से दोस्ती की बात किसी को बताते भी शर्म आती है । वह प्रायः सभी को यों समझाया करती है- ‘हर किसी को मित्र नहीं बनाना चाहिये । मित्रता बड़ी सोच-समझकर करनी चाहिये । अन्त तक फिर उसका पालन करना चाहिये ।
जीवन में कोई सच्चा मित्र न बन पाये, यह उतना बुरा नहीं है । इससे बुरा तो यह है कि हम बिना परखे किसी अयोग्य और दुष्ट से मित्रता कर लें। क्योंकि मित्र शुरू में तो बड़ा मीठा व्यवहार करते हैं, पर अन्त में पछतावा ही पछतावा शेष रहता है । इसलिये खूब सोच-समझकर मित्र बनाने चाहिये ।