जातीय गौरव

एक सुंदर झील के किनारे तोतों के कुछ परिवार उड़ते हुए आए। वे सभी देशाटन पर निकले थे। झील का रमणीक स्थान उन्हें बहुत अच्छा लगा। चारों ओर पहाड़ियाँ, फलों से लदे हरे-हरे वृक्ष थे और स्वच्छ जल था। रहने की सारी सुविधाएँ वहाँ थीं। तोते उड़ते-उड़ते बहुत थक भी चुके थे। अतएव उन्होंने विचार किया कि कुछ दिन इसी घाटी में रहकर विश्राम किया जाए।

तोतों को सुखपूर्वक वहाँ रहते हुए अभी दो-चार दिन ही बीते होंगे कि कौवों का एक बहुत बड़ा झुंड भी वहाँ उड़ता हुआ आ गया। कौवों को भी झील के किनारे का वह स्थान बहुत अच्छा लगा। उन्होंने मिलकर छलपूर्वक तोतों को बंदी बना लिया। यों भी तोते संख्या में थोड़े से ही थे अतएव वे जल्दी ही हार गए थे। उस स्थान पर कौवों ने अपना अधिकार जमा लिया।

कौवे अपनी कठोर आवाज में सारे दिन वहाँ काँव-काँव करते। तोतों को उनकी आवाज से कान बंद कर लेने पड़ते। कौवे इतनी गंदी चीजें खाते, इतने गंदे ढंग से खाते कि देखकर ही तोतों का जी मिचला उठता।

वे सारे दिन दूसरों की बुराई करते, जिसे सुनकर तोतों को बड़ा बुरा लगता। वे अपना बहुत-सा समय बेकार ही गँवा देते, काम करने में आलस्य करते । तोतों को उनके साथ एक-एक दिन काटना मुश्किल पड़ रहा था।

तोते सोच रहे थे कि कौवे जल्दी ही उन्हें बंधन से मुक्त कर देंगे। पर जब चार-पाँच दिन तक भी कौवों ने उन्हें नहीं छोड़ा तो वे सोच में पड़ गए। आखिर ये चाहते क्या हैं ? हमें क्यों नहीं छोड़ देते ? आपस में वे एक-दूसरे से कहने लगे।

एक वृद्ध तोता बोला-‘हो सकता है कि वे यह सोच रहे हों कि हम उनसे लड़ेंगे और इस स्थान पर अपना अधिकार जमा लेंगे।’

तब सारे तोतों ने विचार किया कि वे कौवों से यह बात कह दे कि उन्हें छोड़ दिया जाए। वे इस स्थान से चले जाएँगे जिससे कि कौवे यहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहें।

तोतों के नेता ने कौवों से निवेदन किया- ‘भाइयो ! आप सभी यहाँ आराम से रहिए, उसमें हम बाधक न बनेंगे। कृपया हमें छोड दीजिए। हम सब तोते यहाँ से उड़कर और किसी स्थान पर चले जाएँगे।’

यह सुनकर एक वृद्ध कौवा बड़े ही जोर से काँव-काँव करके बोला—“तोतो ! इस स्थान पर तो अब हमारा अधिकार हो ही चुका है, पर हम तुम्हें भी यों ही न छोड़ेंगे। हम अपनी संस्कृति का प्रसार करने निकले हैं। अधिक से अधिक पक्षियों में हम काक-संस्कृति का प्रचार चाहते हैं। जब तुम हमारी बोली ठीक से सीख जाओगे, हमारा जैसा ही रहन-सहन और हमारे जैसे ही गुण अपना लोगे तब हम तुम्हें छोड़ देंगे।”

कौवे की बात सुनकर तोते तो आश्चर्य से ठगे ही रह गए। एक विद्वान तोता तुरंत बोला- ‘भला यह कैसे संभव है ? आप में और हम में बहुत अंतर है। हमारी और तुम्हारी जातियाँ ही भिन्न-भिन्न हैं। आपकी भाषा भला हम सीख भी कैसे सकते हैं ?’

‘बकवास मत करो, चुप रहो। प्रारंभ में सभी पक्षी ऐसा ही कहा करते हैं, पर बार-बार प्रयास करने से, निरंतर अभ्यास करने से सब संभव हो जाता है।’ कौवे ने कर्कश स्वर में कहा और उड़ गया।

दूसरे ही दिन से कौवों ने प्रशिक्षण देना प्रारंभ कर दिया । तोते यदि उनकी तरह कर्कश स्वर में न बोलते, वैसा ही रहन-सहन न अपनाते तो कौवे उन्हें चोंचों से मारते। कभी तो तोते खून से लथपथ भी हो जाते। वे मन ही मन सोचते – ‘हे भगवान! कहाँ आ फँसे हैं हम ? पर वे लाचार थे। उन्होंने निकलने का कोई उपाय ही न सूझता था। कौवे उन पर कड़ी निगरानी रख रहे थे, जिससे वेछूटकर न भाग सकें।

कुछ ही दिनों में तोते कौवों का आचार-व्यवहार, सीखने लगे। छोटे बच्चे तो कौवों की ही तरह कर्कश स्वर में बोलना, वैसे ही खाना, बुराई करना आदि सभी कुछ जल्दी-जल्दी सीख रहे थे। यह देखकर वृद्ध तोता बड़ा ही दुःखी हुआ। वह कहने लगा- ‘अरे ! धिक्कार है हमें जो दूसरी भाषा, दूसरी संस्कृति अपना रहे हैं। हाय ! हमारे ये छोटे-छोटे बच्चे परायी भाषा में बोलेंगे तो क्या ज्ञान प्राप्त कर पाएँगे ?

बच्चों का सर्वांगीण विकास तो तभी संभव है जब उन्हें मातृभाषा में सिखाया जाए। दूसरों की भाषा में सीखकर क्या कहीं प्रतिभा विकसित हुआ करती है ? मातृभाषा का अपमान करना माँ का अपमान करने से भी अधिक बुरा है।’

उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए विद्वान तोता बोला- ‘और क्या दूसरों की संस्कृति को अपनाने से कहीं कल्याण हुआ करता है ? धिक्कार है इन अभागे मूर्खों को जो अपनी मातृभाषा का गौरव भूलकर औरों की भाषा की नकल ही करते हैं और खुश होते हैं। धिक्कार है उन्हें जो अपनी उत्कृष्ट संस्कृति की गरिमा को भूलकर औरों की संस्कृति का, अवनति के मार्ग पर घसीटने वाली उनकी सभ्यता का अनुकरण करते हैं।’

सभी तोते विचार करने लगे कि हम तो बड़े हैं, कौवों की शिक्षाएँ बाद में भुला भी सकते हैं, पर छोटे-छोटे बच्चों का क्या होगा ? इस नई आयु में तो कुछ वे सीख लेंगे तो यह सदैव ही उनके साथ रहेगा। बच्चों का मन जो कोमल हरी डाल के समान होता है, उसे एक बार जिधर मोड़ दिया जाए उधर ही मुड़ जाती है।

एक तोता कहने लगा- ‘यदि ये बच्चे गलत सीख लेंगे तो इनकी आने वाली पीढ़ियाँ भी फिर कौवों की ही तरह व्यवहार करेंगी। हाय ! यों तो हमारी जाति का एक बहुत बड़ा भाग ही धीरे-धीरे काक-संस्कृति में दीक्षित होता चला जाएगा। ऐसे तो हमारीजाति का बड़ा ही अपकार होगा। अरे ! ऐसे जीवन से तो मर जाना ही अधिक अच्छा है।’

बस फिर क्या था। दूसरे ही दिन से तोतों ने सत्याग्रह प्रारंभ कर दिया। बच्चे, बूढ़े जवान सभी तोतों ने कह दिया- ‘अब हम आपकी शिक्षायें नहीं लेंगे।’

कौवों ने उन्हें बहुतेरा समझाया, मार डालने की धमकियाँ भी दीं पर तोतों ने एक न सुनी। उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया। कौव को उन्होंने साफ जवाब दे दिया- आप हमें क्या मारेंगे, हम स्वयं ही अपने प्राण छोड़ देंगे। जैसा जीवन आजकल हम जी रहे हैं वह मृतकों से भी बुरा है।’

तीन-चार दिन तक तोतों ने न कुछ खाया, न पिया। वे अब अचेत से होने लगे। कौवे दिन में एक बार उनके पास आते और हठ छोड़ देने का आग्रह करते, पर तोते उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखते। वे अभी भी अपने निश्चय पर दृढ़ थे। ‘अब तो हम मरने वाले ही हैं। हमारा अंत समय आने ही वाला है।’ यह सोच कर वे मन ही मन भगवान को याद करते रहते थे।

पाँचवें दिन संयोग से एक गिलहरी कहीं से घूमती-घामती वहाँ आ गई। जब उसने बहुत-से तोतों को लताओं की रस्सी से बँधे देखा तो वह अपना आश्चर्य न रोक सकी। गिलहरी चंचल तो थी ही फुर्र से उनके पास दौड़ी गई ।

‘अरे भाइयो ! यह क्या हुआ ? किसने तुम्हारी यह स्थिति कर दी है ?’ वह तोतों की दयनीय दशा देखकर बड़े ही चिंता भरे स्वर में बोली।

गिलहरी की बात सुनकर तोतों ने बड़ी मुश्किल से अपनी आँखें खोलीं। उन्होंने कुछ कहने के लिए अपनी चोंच खोली, पर प्यास के कारण उनकी जीभ मुँह में ही चिपक कर रह गई और उनके मुँह से आवाज न निकली।

‘ओह ! रुको।’ गिलहरी बोली। उसने अपने पैने दाँतों से तोतों के बंधन काट दिए। फिर वह दौड़कर गई और अपने मुँह में पानी भर लाई। एक तोते की चोंच में उसने पानी डाला, पानी पीकर उसे कुछ शक्ति मिली। उसने कोशिश की और उड़ चला पानी लाने के

लिए। पानी लाकर उसने दूसरे तोतों के मुँह में भी डाला। इस प्रकार बारी-बारी से तोते पानी पीकर उड़ते और प्यासे तोतों के मुँह में पानी डालते।

जब सारे तोते उड़ने योग्य स्थिति में आ गए तो वृद्ध तोता बोला- गिलहरी बहिन ! हम तुम्हारे जितने कृतज्ञ हो उतना ही कम है। तुमसे हम बहुत कुछ कहना चाहते हैं, पर डर है कि वे सभी दुष्ट कौवे कहीं फिर न आ जाएँ और तुम्हारा सारा परिश्रम ही व्यर्थ में चला जाए ।’

गिलहरी कहने लगी- ‘पहाड़ी के पीछे रसीले आडुओं का एक बड़ा पेड़ है। उत्तर दिशा की ओर उड़ने से तुम्हें वह पेड़ मिल जाएगा। तुम सब वहीं उड़ जाओ। मैं भी वहीं पहुँच रही हूँ, तभी तुमसे बातें करूँगी।’

तोतों ने गिलहरी को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया और वहाँ से उड़ चले। जल्दी ही वे आडुओं के पेड़ के पास पहुँच गए। वहाँ पर स्वादिष्ट आडू खाकर उन्होंने अपनी भूख मिटाई। थोड़ी देर बाद गिलहरी भी वहाँ पहुँच गई। उन्होंने उस झील के पास आने से लेकर अब तक की सारी बातें विस्तार से बताईं।

गिलहरी कहने लगी- ‘ओह ! तब तो तुम्हारा अब यहाँ पर अधिक देर तक ठहरे रहना उचित नहीं है। जल्दी से तुम्हें ढूँढ़ते हुए वे सारे दुष्ट कौवे यहाँ पर आ ही जाएँगे। तुम सब तुरंत यहाँ से उड़ जाओ।’

तौतों ने गिलहरी का बहुत-बहुत आभार प्रकट किया। फिर भावभरे हृदय से उससे विदा लेकर वे लंबी उड़ान के लिए उड़ चले।

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