नन्दू की नौकरी

नन्दू के पिता बचपन में ही मर गये थे । छोटे-छोटे भाई-बहिन थे । नन्दू की माँ सारे दिन जी तोड़कर | मेहनत करतीं तब कहीं जाकर उन्हें रूखी-सूखी रोटी मिल पाती । नन्दू तेरह ही साल का था ।

उसकी माँ एक दिन कहने लगी- ‘बेटा ! अब तुम बड़े हो गये हो । अब इस परिवार की नैया तुम्हीं पार लगाओगे । तुम्हें कुछ न कुछ कार्य खोजना होगा ।’

नन्दू के पड़ोस के गाँव में ही एक सेठ रहता था । नन्दू की माँ उससे लगातार नन्दू की नौकरी दिलवाने के लिये कहती थी । आखिर एक दिन उनका प्रयास सफल हो गया । नन्दू की नौकरी पास के शहर में एक मिठाई की दुकान पर लग गयी ।

खुशी-खुशी नन्दू घर से चला । चलते समय माँ ने उसे सौ रुपये का नोट दिया और बोली- ‘बेटा! तुम्हारे लिये मैं यह रुपया महाजन से उधार लेकर आयी हूँ । तुम परदेश जा रहे हो, वहाँ न जाने कब पैसों की जरूरत आ पड़े । अतएव तुम इसे सँभाल कर रख लो । जाड़े भी आने वाले हैं, रजाई गद्दे बनवा लेना।

नन्द्र ने भाई-बहिनों को प्यार किया, माँ के पैर छुए और थैला उठाकर चल पड़ा। रास्ते में माँ उसे समझा रही थी- ‘देखो बेटा ! सदा ईमानदारी से कार्य करना पैसे के लिये अपनी इज्जत और ईमानदारी मत बेचना ।

हाँ, यदि इनके लिये यदि पैसे से भी एक बार हाथ धोना पड़े तो उसमें भी संकोच न करना । इज्जत जब एक बार चली जाती है तो न पैसे से वापिस आती है न हजार प्रशंसाओं से ।

‘माँ, सदैव यह बात याद रखूँगा ।’ नन्दू ने कहा और बस में बैठ गया ।

नन्द्र मिठाई की दुकान पर सारे ही दिन बड़ी मस्ती से काम करता । उसकी यह कोशिश हमेशा रहती थी कि किसी को उसके काम से, उसके व्यवहार से कोई शिकायत न रहे । मालिक भी उससे खुश रहते थे ।

नन्दू को काम करते हुए एक सप्ताह ही बीता होगा कि एक दिन दुर्घटना हो गयी। हुआ यह कि जब हलवाई रात को हिसाब मिलाने बैठा तो पूरे सौ रुपये कम पड़े । उसने बार-बार हिसाब मिलाया, पर हर बार यही बात ।

‘नन्दू सौ रुपये का चक्कर पड़ रहा है । सौ रुपये न जाने कहाँ गये ? आज तक कभी ऐसा झंझट नहीं पड़ा ।’ बार-बार नन्दू से यही कह रहा था।

नन्दू समझ गया कि हलवाई उस पर शक कर रहा है । नन्दू को सहसा ध्यान आया कि उसके पास भी सौ रुपये ही थे । वह सोचने लगा कि नयी-नयी नौकरी है। मालिक जरूर उसकी चीजों की तलाशी लेंगे और जब उन्हें सौ रुपये ही उसके थैले में मिलेंगे तो वह सोचेंगे कि ये रुपये दुकान से चोरी किये गये हैं ।

उस गरीब की बात पर कोई विश्वास न करेगा । उसका इतने दिनों का सारा परिश्रम, सारी ईमानदारी धूल में मिल जायेगी । माँ की बात उसके कानों में गूँजने लगी । इज्जत और ईमानदारी बनाये रखने के लिये एक बार को यदि पैसे से भी हाथ धोना पड़े तो उसमें तनिक भी संकोच न करना ।

वह तुरन्त घर के अन्दर गया । थैले में से सौ रुपये निकाले, चुपचाप मुट्ठी में दबाये और दुकान में आ गया । नन्दू कुछ देर तक इधर-उधर रुपये देखने का बहाना करता रहा । फिर सेठजी के पास जाकर हथेली पर सौ रुपये का नोट फैलाकर बोला- ‘सेठजी यह रहे रुपये ।’

‘अरे कहाँ मिले ?’ हलवाई जो शुरू से ही उस पर शक कर रहा था, बोला । ‘यहीं पड़े थे तिजोरी के पास ।’ नन्द्र ने थोड़ी आँखें नीची करके कहा ।

‘झूठ बोलता है ।’ हलवाई ने कड़क कर गुस्से में कहा और नन्दू के गाल पर तड़ातड़ तमाचे जड़ दिये । नन्द्र की आँखों से टप-टप आँसू झरने लगे ।

तभी सेठजी ने झकझोरकर पूछा- ‘सच-सच बता कि यह सौ रुपये कैसे-किस तरह गायब हुए ? नहीं तो मार-मारकर अधमरा कर दूँगा ।’

अब नन्दू फफक-फफक कर रो उठा । रोते-रोते उसने सारी सच-सच बात सेठजी को बता दी, पर सेठ भला उसकी बात पर कैसे विश्वास कर लेता ? उसने नन्दू की पीठ पर एक धौल जमाते हुए कहा- ‘साले । कहानी तो गढ़ लेता है, पर हाँ आगे रुपये ! पैसे के मामले में जरा भी गड़बड़ी हुई तो तुझे सीधा पुलिस के हवाले कर दूँगा ।’

यह सुनकर नन्दू सिहर उठा । यदि उसने सेठ को सौ रुपये निकालकर न दिये होते तो आज वह उसे निश्चित ही पुलिस के हवाले कर देता। रुपये भी जाते और इज्जत भी नौकरी छूटती सो अलग।

गाँव भर में बदनामी होती, अपने छोटे-छोटे भाई-बहिन और माँ के भूखे और करुण चेहरे नन्दू की आँखों के आगे घूम गये । ‘कोई बात नहीं, इस बार बिना रजाई गद्दों के ही जाड़े कालूँगा ।’ वह मन ही मन बड़बड़ाया ।

उस रात नन्दू के गले से पानी की एक बूँद तक न उतरी । वह चुपचाप भूखा-प्यासा जाकर जमीन पर लेट गया । हलवाई के परिवार का कोई व्यक्ति भी उससे कुछ पूछने न आया ।

अगले तीन-चार दिनों तक भी उससे ठीक से कुछ न खाया गया । दो-चार गस्से खाता और उठ जाता । लटकाये घूमता । यह देखकर हलवाई की पत्नी का दिल भर सारा दिन मुँह आया । उसने अपने पति से कहा- ‘सुनिये। कहीं ऐसा न हो कि नन्दू की बात ही सच हो । चोरी करने वाला इतना अधिक परेशान नहीं रहा करता ।’

हलवाई ने डॉंटकर उसे चुप कर दिया- ‘तुम भी मूर्ख हो कि उसकी मनगढ़ंत बातों पर विश्वास करना चाहती हो ।’बात आयी गयी हो गयी, किसी ने इस पर अधिक विचार न किया। चौथे दिन हलवाई का लड़का दूसरे शहर से वापिस आया । जब सभी खाना खाकर गप-शप कर रहे थे तो सहसा नन्दू वाली बात की चर्चा हुई ।

हलवाई का लड़का चौंककर बोला- ‘अरे पिताजी ! मैं तो आपको बताना ही भूल गया था कि आप दुकान पर थे नहीं, मैं जल्दी में था इसलिये आप से बिना कहे ही सौ रुपये का नोट लेकर बाहर चला गया था ।’

‘तो नन्दू निर्दोष है।’ चीखकर हलवाई और उसकी पत्नी बोले । ‘उसकी बात सच ही है ।’ लड़का कहने लगा और नन्दू को आवाज लगायी ।

रात में इतनी देर गये मालिक की आवाज सुनकर नन्दू एक बार को काँप उठा । ‘अब पता नहीं क्या दुर्घटना होगी ?’ ऐसा मन ही मन सोचते हुए वह कोठरी से बाहर निकला और सिर झुकाकर सबके सामने खड़ा हो गया ।

हलवाई ने आगे बढ़कर उसे गले से लगा लिया और बोला- ‘बेटा! तुम्हारी ही बात सच थी, हमसे बहुत बड़ी गलती हुई है । अब आगे ऐसा न होगा । हमें माफ कर दो ।’

यही नहीं, सेठ ने दूसरे ही दिन अपने पास से दो सौ रुपये दिये और बोला- ‘जाओ ! तुम अपनी माँ से मिल आओ और उसे रुपये भी दे आओ। सौ रुपये महाजन का कर्ज उतारने के लियेऔर सौ रुपये घर का खर्च चलाने के लिये ।’

नन्दू की आँखों में कृतज्ञता के आँसू भर आये । वह यह सोच रहा था कि ईमानदारी और सूझबूझ व्यक्ति का सदैव ही आदर कराती है ।

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