श्वेता की उतावली

पीयूष के घर एक पालतू बिल्ली थी। वह सफेद रंग की थी । इसीलिये सबने उसका नाम श्वेता रख लिया था । श्वेता घर के सदस्य की ही भाँति रहती थी । वह शान से अपनी गर्दन उठाकर घर भर में घूमती रहती थी । निडर भाव से वह अपनी |

मालकिन शालिनी की गोद में चढ़ जाती । वे प्यार से उसकी पीठ थपथपातीं । श्वेता अपनी आँखों को आधा खोलकर, उसके स्नेह के प्रति ‘म्याऊँ म्याऊँ कहकर प्रसन्नता व्यक्त करती ।

श्वेता को दूध और उससे बनी चीजें बहुत पसंद थीं । उसकी यह पसन्द शालिनी को भी पता थी । इसलिये वह उसे रोज दूध तो देती ही थी, पर जब भी घर में खीर, गाजर का हलुआ, छेने की मिठाई बनती तो श्वेता बिल्ली को भी वह जरूर दी जाती |

एक दिन शालिनी का बेटा राहुल माँ से बोला- ‘माँ ! आज तो मैं खीर खाऊँगा । स्कूल से लौट आऊँ उससे पहले खीर जरूर बनाकर रखना ।’

दोपहर के समय शालिनी ने रसोईघर में जाकर खीर बनानी प्रारम्भ की । श्वेता बिल्ली उस समय बगीचे में उछल-कूद कर रही थी । उसकी नाक में खीर पकने की सौंधी-सौंधी गन्ध गयी । वह वहाँ से तुरन्त दौड़ी आयी ।

उसने देखा कि मालकिन रसोई में बैठी कुछ पका रही हैं । वह दरवाजे पर खड़ी होकर म्याऊँ म्याऊँ करके खीर माँगने लगी । शालिनी श्वेता बिल्ली को कभी रसोई के अन्दर न आने देती थी । इसलिये वे दरवाजे पर ही खड़ी बोल रही थीं ।

‘अरी । खीर तो पक जाने दे । इतनी उतावली क्यों हो रही है, तुझे क्या मिलेगी नहीं ?’ शालिनी ने बैठे-बैठे कहा ।

श्वेता की समझ में कुछ बात आयी, कुछ नहीं । पर वह रसोई के दरवाजे से हट गयी । वह बरामदे में इधर-उधर घूमते चूहों के पीछे दौड़ने लगी । फिर कुछ देर तक चुपचाप आँखें बन्द करके ही बैठी रही ।

पर उससे देर तक चुप न बैठा गया । खीर की गन्ध जैसे-जैसे उसकी नाक में घुसती जा रही थी वह बेचैन होती जा रही थी । श्वेता फिर रसोईघर के दरवाजे पर म्याऊँ म्याऊँ करने लगी ।

खीर बन चूकी थी, पर वह बहुत गर्म थी । शालिनी बोली- ‘श्वेता अभी थोड़ा-सा रुक जाओ ।’ शालिनी रसोईघर के दरवाजे से निकली तो श्वेता भी उसके पीछे-पीछे चलने लगी । उसकी साड़ी का पल्ला खींचने लगी ।

शालिनी ने देखा कि श्वेता खीर खाने के लिये बड़ी उतावली है तो उसने एक कटोरी में खीर डाली । उसमें से गर्म-गर्म भाप निकल रही थी । शालिनी ने कटोरी जमीन पर रखकर समझाया था — ‘अभी बहुत गर्म है । ठण्डी होने पर खाना ।’

इतने में शालिनी की कोई सहेली आ गयी और वह दूसरे कमरे में जाकर उससे बातें करने लगी ।

इधर श्वेता ने उतावली में कटोरी में अपना पंजा मारा । खीर जमीन पर लुढ़क गयी । पंजे से छूने पर श्वेता को कटोरी विशेष गर्म न लगी । उसने जल्दी से जमीन पर लुढ़की हुई खीर खाने के लिये मुँह मारा ।

खीर से इतनी अच्छी सुगन्ध आ रही थी कि श्वेता अपने को रोक ही नहीं पा रही थी । वह सोच रही थी कि जरा-सी चख लेने में क्या हर्ज है ?

श्वेता ने जल्दी में खीर से जैसे ही जीभ लगायी तो वह तुरन्त बहुत बुरी तरह जल गयी । ‘ओह ! यह तो बहुत गर्म है ।’ श्वेता ने मन ही मन कहा ।

खीर की गन्ध उसके नथुनों में बुरी तरह भर चुकी थी । वह धैर्य न रख सकी और अपने पंजों को इधर-उधर पटकने लगी । उसका पंजा लगने से पास में रखी पानी की कटोरी लुढ़क गयी । पानी और खीर दोनों मिलकर एक हो गये ।

पानी मिलने से खीर ठण्डी हो गयी थी, पर उसका स्वाद समाप्त हो गया था । श्वेता को खीर बड़ी फीकी और नीरस लग रही थी । अब वह अपनी जल्दबाजी पर पछताने लगी । न वह इतनी जल्दी मचाती और न खीर बेकार होती ।

जमीन पर से पानी मिली खीर चाटकर श्वेता ने खीर की कटोरी चाटी । कटोरी के किनारों पर जरा-सी खीर लगी रह गयी थी । उसे ही खाकर उसकी जीभ चटखारे भरने लगी ।

श्वेता मन में सोच रही थी कि न मैं आज इतनी जल्दबाजी करती और न इतनी अच्छी खीर खाने से वंचित रहती । किसी ने सच ही कहा है कि जल्दबाजी और उतावलेपन में काम सदैव ही बिगड़ता है। जो धैर्य और शान्ति से कार्य करता है वही सफलता पाता है ।

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *