होनहार बालक

सौरभ और विक्रम दोनों के घर आसपास थे। वे एक ही स्कूल में एक ही कक्षा में पढ़ते थे। वे साथ-साथ स्कूल जाते थे और साथ ही साथ अपने-अपने घर लौटते थे। उनके पिताजी भी एक आफिस में काम करते थे।

सौरभ और विक्रम दोनों को ही प्रतिदिन जेब खर्च के लिए पैसे मिलते थे। विक्रम अपने सारे पैसे स्कूल में ही खर्च कर डालता। कभी चाट खाता तो कभी चिंगम। उसके अभिभावक कभी उससे यह तक न पूछते कि वह पैसा किस चीज में खर्च करता है ? धीरे-धीरे विक्रम बड़ा चटोरा बन गया।

विक्रम देखता है कि सौरभ स्कूल में चीजें खरीदकर बहुत कम खाता है। वह अपने घर से ही खाना या नाश्ता ले आता और वही खा लेता। विक्रम उससे प्रायः कहता— ‘चलो भी ! हम सभी दोस्त मिलकर चाट खाएँगे परंतु सौरभ बड़ी विनम्रता से मना कर देता। वह बहुत कम, कभी-कभी ही उनके साथ जाता। यह देखकर विक्रम को बड़ा गुस्सा आता। उसने अपने मित्रों में यह बात फैला दी कि सौरभ कंजूस है, मक्खीचूस है। अब तो उठते-बैठते सारे साथी उसे चिढ़ाया करते—’कंजूस – मक्खीचूस ।’

प्रारंभ में तो सौरभ इतने सारे बच्चों यों चिढ़ाने से रुँआसा हो गया। फिर उसने सोचा कि यदि मैं इनके सामने रो गया या चिढ़ने लगा तो ये सभी मुझे और चिढ़ाएँगे।

बच्चे जब चिढ़ा-चिढ़ाकर थक गए और सौरभ पर कोई भी असर न पड़ा तो आखिर वे ऊब गए। एक दिन विनय से न रहा गया और वह पूछ ही बैठा— ‘सौरभ ! तुम्हें जेबखर्च के लिए रोज पैसे तो मिलते होंगे न ?’

‘हाँ ! मिलते तो हैं।’ सौरभ ने उत्तर दिया ।

तो फिर तुम इतने कंजूस क्यों हो ? क्यों उन्हें खर्च नहीं करते ?’ विनय ने पूछा। *भाई ! तुम मुझे कंजूस तो नहीं, पर हाँ मितव्ययी जरूर कह सकते हो।’ सौरभ बोला।

हूँ ! कंजूस और मितव्ययिता में क्या अंतर है ?’ विनय फिर कहने लगा।

“भाई अंतर है, बहुत ही अंतर है। सौरभ समझाने लगा- ‘मितव्ययिता का अर्थ कंजूसी बिल्कुल नहीं है। मितव्ययिता तो फिजूलखर्ची और कंजूसी के बीच की वस्तु है। फिजूलखर्चा बिलकुल भी नहीं करें यह बात तो गरीब और अमीर सभी के लिए समान रूप से आवश्यक है।’

‘ओह ! उपदेशक महोदय हम तुम्हारी बात समझ नहीं पाए।’ विक्रांत कहने लगा। सौरभ ने फिर समझाया- ‘देखो भाई ! कंजूस तो वह होता है

जो जरूरत होने पर भी पैसा खर्च नहीं करता। ऐसा पैसा व्यर्थ है, मिट्टी है जो न अपने काम में आए और न दूसरों के पर मितव्ययी वह होता है जो यह सोच-समझकर पैसा खर्च करता है कि कहाँ व्यय करना चाहिए, कहाँ नहीं और फिजलूखर्ची वह होता है जो बिना सोचे-समझे हर कहीं धन व्यय कर देता है।’

‘ओह ! छोड़ो यह पचड़ा। यह बताओ कि मितव्ययी बनने से लाभ भी क्या ?’ पंकज ने पूछा ।

‘ऐसा न कहो।’ सौरभ बोला। अपव्यय अंत में बड़ा ही दुःख देता है। चाहे वह धन का हो, समय का हो या फिर शारीरिक और मानसिक शक्तियों का हो। शारीरिक, मानसिक और आर्थिक संयम बरतकर ही सदैव सुखी, संतुष्ट और स्वाभिमानी जीवन जिया जा सकता है।

‘ओह ! किसने सिखाया है तुम्हें यह सब ? विनय तुरंत ही पूछने लगा ।

मेरे अपने पिताजी और माताजी ने।’ सौरभ ने गर्व से सिर उठाकर कहा। विक्रम ने पूछा- ‘अच्छा जो पैसे तुम्हें मिलते हैं, उनका तुम करते क्या हो ?’

“मैं उन्हें गुल्लक में डाल देता हूँ। जब कोई आवश्यकता होती है तो कोई चीज ले लेता हूँ।’ सौरभ बोला। ‘हूँ।’ यों जोड़ने के लिए, मितव्ययी बनने के लिए पूरा जीवन पड़ा है।’ विक्रम ने नाक-भौं सिकोड़कर कहा ।

‘पर तुम भूल जाते हो कि बचपन में हम जैसी आदतें डाल लेते हैं वही बड़े होकर भी बनी रहती है।’ सौरभ कहने लगा। ‘तो भाई ! हमारी आदतें गंदी ही सही।’ विक्रांत थोड़ा-सा चिढ़कर बोला।

सभी बच्चे सौरभ को उलाहने देते चले गए। ‘यह सौरभ का बच्चा अपने आपको न जाने क्या समझता है। पढ़ने में जरा कुछ होशियार है, इसलिए बड़े उपदेश झाड़ता रहता है। मास्टर साहब भी इसे प्यार करते हैं, इसलिए हम पर रौब गाँठता है।’ वे सब आपस में कह रहे थे।

उस दिन के बाद से अधिकांश बच्चों ने सौरभ से बोलना ही छोड़ दिया था। विक्रम और उसके साथी सभी बच्चों को सौरभ के विरुद्ध भड़काते रहते थे। एक-दो बच्चे ही ऐसे थे जो उनकी बातों में न आते थे। वे सौरभ के पास बैठते । विक्रम और उसके साथी उन बच्चों को भी तंग किया करते थे।

इसके कुछ ही दिनों बाद की बात है। अचानक ही अपने देश का पड़ौसी देश के साथ युद्ध छिड़ गया। देश की रक्षा के लिए बच्चे – बुड्ढे सभी में उत्साह की लहर दौड़ गई। रक्षाकोष के लिए स्थान-स्थान पर धन एकत्रित किया जाने लगा।

सौरभ की गुल्लक में कई वर्षों से जेबखर्च के लिए दिए जाने वाले पैसे इकट्ठे हो रहे थे। उसने मन में सोचा—इस पवित्र कार्य में मैं ही क्यों पीछे रहूँ ?’ उसने अपनी सारी ही एकत्रित धनराशि

रक्षाकोष में देने का विचार किया। उसके पास अब तक कुल ४७० रुपये जमा हो गए थे। सौरभ ने अपने पिताजी से जब यह बात कही तो वे बड़े ही प्रसन्न हुए। मातृभूमि की रक्षा करना हमारा पहला कर्तव्य है।’ उन्होंने सौरभ को समझाया।

सौरभ को प्रोत्साहन देने के लिए पिताजी ने ३१ रुपये अपनी जेब से और मिला दिए। सौरभ ने उसी दिन ५०१ रुपये का ड्राफ्ट प्रधानमंत्री के पास रक्षाकोष में भेज दिया।

साथ में उसने एक पत्र भी रखा था, जिसमें उसने लिखा था कि आप चिंता मत करिये, देश पर संकट आने पर हम नन्हें-नन्हें बच्चे भी एकजुट होकर काम करेंगे और अपना सब कुछ ही मातृभूमि पर न्यौछावर कर देंगे।

लगभग एक सप्ताह बाद ही प्रमुख समाचार-पत्रों में सौरभ का फोटो और पत्र छपा था। साथ ही यह समाचार विस्तार से दिया गया था कि किस प्रकार एक दस वर्ष के छटी कक्षा के छात्र ने अपने वर्षों के जेबखर्च के बचाए हुए पैसे अपने देश की रक्षा हेतु रक्षाकोष में दिए हैं। बच्चे के त्याग भरे इस कार्य से बड़े-बड़ों को भी प्रेरणा मिली।

सौरभ के प्रधान अध्यापक ने जब यह समाचार पढ़ा तो वे गद्गद् हो उठे। सौरभ ने न केवल अपना अपितु उनके स्कूल का नाम भी उज्ज्वल किया था। ऐसे बच्चे ही तो समाज और देश के गौरव हुआ करते हैं।’ उन्होंने मन ही मन सोचा । फिर उन्होंने सौरभ को सम्मानित करने का विचार किया।

प्रधान अध्यापक ने स्कूल में बच्चों की एक सभा की। उन्होंने सभी बच्चों के सामने सौरभ की बड़ी प्रशंसा की, उसे बहुत शाबासी दी और प्रोत्साहन के लिए एक सुंदर पैन और कुछ अच्छी पुस्तकें भी उपहार में दीं। उस दिन स्कूल भर के सारे बच्चे सौरभ की ही बात कर रहे थे।

विक्रम और उसके साथी आज मन ही मन बड़े लज्जित थे। वे सौरभ के पास आए और बोले- भाई ! तुमने तो आज हमारी आँखें खोल दीं। हमारे ही विचार खराब थे जो तुम्हें इतना तंग किया और तुम्हारी बुराई भी की। अब हम कभी ऐसा काम नहीं करेंगे। इस बार माफ कर दो न हमें। अब हम भी तुम्हारे जैसा ही महान् बनेंगे।

‘छि: ! कैसी बातें करते हो तुम सब। मैं तो पहले भी तुम्हें प्यार करता था और हमेशा करता रहूँगा।’ यह कहते हुए सौरभ ने अध्यापकों से मिले हुए टाफियों के डिब्बे से एक-एक टाफी निकालकर सभी बच्चों के मुँह में रखने लगा।

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