कूबड़ी बुआ

नैमिषारण्य में रानी नाम की एक साही रहा करती थी। वह आयु में छोटी होते हुए भी बड़ी बुद्धिमान थी। उसकी बुद्धिमत्ता से अनेक बार साहियों के परिवार की रक्षा हुई थी अतएव सभी उसका बड़ा सम्मान करते थे।

कुछ ही ऐसे व्यक्ति होते हैं जो सम्मान और ऊँचा पद पाकर भी अभिमान नहीं करते। सामान्य व्यक्ति तो थोड़ा-सा सम्मान पाकर ही घमंड से भर उठते हैं। रानी के साथ भी यही हुआ।

वह सोचने लगी कि मेरा जैसा बुद्धिमान पूरे नैमिषारण्य में कोई नहीं है। इस अहंकार ने रानी के व्यवहार पर भी प्रभाव डाला। पहले वह बड़ों का आदर करती थी, बराबर वालों से विनम्रतापूर्वक बातें करती थी पर अब तो उसके पैर ही जमीन पर न पड़ते थे। अब वह बड़ों को देखकर भी अनदेखा कर देती, एकदम मुँह के सामने पड़ जाने पर ही नमस्ते करती।

बड़ों के प्रति वैसी श्रद्धा-सम्मान भी अब उसके मन में नहीं था। बराबर वालों से तो उसका व्यवहार बड़ा ही रूखा हो गया था। अपने सामने उनको वह बड़ा ही तुच्छ भी समझती और बात-बात में उनका तिरस्कार करती, अपमान भी करती रहती थी। छोटों को तो वह बात-बात में डाँटती, मारती और अपना रौब गाँठती।

जैसा जिसका स्वभाव होता है उसकी वाणी भी वैसी बन जाया करती है। किसी की वाणी को सुनकर ही उसकी महानता या दुर्जनता या बुरे स्वभाव को समझा जा सकता है। अब रानी की वाणी भी उसके स्वभाव के ही अनुसार बड़ी कर्कश और कटुता भरी हो गयी थी। बात-बात में गालियों का प्रयोग करना उसकी आदत बन चुकी थी।

यह सब देखकर रानी की माँ को बड़ी चिंता हुई। उसने सोचा कि अभी से ही यदि रानी को ऐसे अपशब्द बोलने की आदत पड़ गई तो बड़ा ही बुरा होगा। क्योंकि बाद में जबकि अभ्यास दृढ़ हो जाएगा तो यह सब इसके स्वभाव का अभिन्न अंग बन जाएगा। फिर इसे दूर करना बड़ा ही कठिन होगा।

अतएव उसने रानी को बुलाया और बोली- ‘बिटिया ! देखो संसार में व्यक्ति किसी का धन के कारण आदर नहीं करते, रूप के कारण आदर नहीं करते, आदर करते हैं उसके व्यवहार के कारण, मीठी वाणी के कारण हमारे धन, रूप या ज्ञान से दूसरों को लाभ नहीं होता, पर जैसा हम बोलते हैं उसका सीधा-सीधा प्रभाव उन पर पड़ता है। अतएव सदैव सच बोलो, मीठी बोली बोलो।’

माँ की बात सुनकर रानी तुनककर बोली- ‘ओह माँ ! मैं कब इस बात से मना करती हूँ।’

माँ फिर प्यार से समझाने लगी- देख मुनिया ! तू बड़ा ही रूखा बोलने लगी है। बात-बात में गाली का प्रयोग करने लगी है। यह सब तुझे शोभा नहीं देता। गंदी आदत तो जितनी जल्दी छोड़ दी जाए उतना ही अच्छा है। गंदी बातों पर शुरू में ही यदि हम विचार नहीं करते, उन्हें पनपने देते हैं तो वे हमारे स्वभाव का अभिन्न अंग बन जाती हैं और फिर बाद में उन्हें छोड़ना बड़ा ही कठिन हो जाता है।’

रानी अपनी भौहें चढ़ाकर बोली-माँ ! तुम तो बात-बात में उपदेश झाड़ती हो। इस समय मैं तुमसे आखिर कह भी क्या रही हूँ। चुपचाप बैठी अपना काम ही तो कर रही हूँ।’

यह सुनकर रानी की माँ तनिक कठोर स्वर में बोली- ‘देख ! मेरी एक बात तू सदैव गाँठ बाँधकर रखना कि कडुआ बोलने वाले का, झूठ बोलने वाले का और अपशब्द बोलने वाले का समाज में कभी सच्चा सम्मान नहीं होता।

उसके परिवार के व्यक्ति उसकी रूखी और कठोर वाणी के कारण उससे स्नेह और सहानुभूति नहीं रखते। अपनी कड़वी जवान के कारण ऐसा व्यक्ति अपने आपको बड़ा ही अकेला और असुरक्षित-सा अनुभव करता है। उसके मित्र तो कठिनाई से बनते हैं, हाँ शत्रु बनते देर नहीं लगती।’

यह सुनकर रानी लगभग चीखती-सी बोली- तुम क्या जानो मेरा महत्त्व और मेरा गुण तुम्हें तो बस मेरी बुराइयाँ ही बुराइयाँ हर समय दिखलाई देती हैं। जब देखो तब बात-बात में टोकती ही रहती हो ।’

‘टोकती रहती हूँ तो तुम्हारे भले के लिए ही न। माँ तुरंत ही बोली। ‘मुझे नहीं चाहिए ऐसा भला।” यह कहती हुई रानी गुस्से से तमतमाती हुई बाहर निकल गई।

रानी की उद्दंडता दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। उसकी माँ ने अनेक बार समझाने की चेष्टा की, पर उससे कोई प्रभाव न पड़ा। सच है कि जब गलती को गलती माना जाएगा तभी तो उसे दूर करने का प्रयास किया जाएगा।

जब गलत आदत या काम गलत ही न लगे तो फिर उसे दूर भी कैसे किया जा सकता है ? रानी की माँ ने मन ही मन में कहा- ‘भगवान ही इसे अब तो सद्बुद्धि दें।”

एक दिन रानी तपती दोपहरी में बहुत देर तक वन में भटकती रही, पर उसे कुछ खाने को नहीं मिला। धूप और भूख के कारण वह बड़ी व्याकुल हो उठी। ‘चलो पानी ही पीती हूँ’ कुछ तो शांति मिलेगी।

ऐसा विचार करके वह नदी के किनारे पानी पीने गई। रानी ने अभी दो-चार घूँट पानी ही पिया होगा कि एक बलिष्ठ हाथी भी नदी के किनारे आकर पानी पीने लगा। भूख और गुस्से से रानी बेकाबू हो उठी और चीखते हुए जोर से बोली- ‘अबे ओ ! मैं तुमसे पहले आई हूँ। पानी को तू अभी झूठा न कर। पहले मुझे पानी पी लेने दे।”‘

हाथी ने अपनी लाल-लाल आँखें उस पर गढ़ाकर चिंघाड़ते हुए कहा—’तू-तड़ाक न बोलो, गाली न बको। चुपचाप पानी पी लो। नदी का पानी सभी के लिए है, सभी जानवर पानी पीते हैं। वह कभी झूठा नहीं होता है।’

रानी का क्रोध अब तो और भी अधिक बढ़ गया। वह आँखें निकालकर हाथ नचाते हुए बोली- ‘मूर्ख’ ! जवान सँभालकर बात कर। तू भूल गया कि किससे बोल रहा है।’

यह सुनकर तो हाथी का गुस्सा बहुत ही भड़क उठा। हाँ महारानीजी ! मैं जानता हूँ कि किससे बातें कर रहा हूँ। आपकी और अपनी दोनों की औकात में अच्छी तरह से जानता हूँ।’ ऐसा कहते हुए उसने रानी को अपनी सूँड में दबोचा और उठाकर दूर जमीन से दे मारा। वह मन ही मन बड़बड़ा रहा था— चाहे इसके काँटे मेरी सूँड में गढ़ जाएँ, पर आज इसे सबक सिखाकर ही रहूँगा। दिन पर दिन बड़ी उदंड होती चली जा रही है यह।’

पलभर को रानी समझ ही नहीं पाई कि यह हुआ क्या ? उसे तो स्वप्न में भी ऐसी उम्मीद न थी। वह जानती थी कि उसके काँटे दूसरों के शरीर में गढ़ जाते हैं अतएव सभी उसे छूने से डरते हैं। कुछ देर तक तो वह अचेत-सी पड़ी रही। होश आने पर जैसे-तैसे उठी। पर यह क्या ? उससे तो चला भी नहीं जा रहा था। रानी को पग-भर भी बढ़ना कठिन लग रहा था। गनीमत यह थी कि उसका घर वहाँ से कुछ पास ही था।

जैसे-तैसे कई घंटों में वह अपने घर पहुँच पाई। घर जाते ही वह कराहते हुए जमीन पर गिर पड़ी। रानी की माँ ने उसे देखकर ही समझ लिया कि इसकी रीढ़ की हड्डी टूट गई है। दो महीने तक निरंतर उपचार करने के बाद रानी की हड्डी जुड़ तो गई, पर बड़ी ही टेढ़ी जुड़ी। अब तो वह कमर, झुकाकर, टेढ़ी-तिरछी होकर चलती है और तेज भाग भी नहीं सकती। आस-पड़ौस के सभी बच्चे उसे कुबड़ी बुआ कहकर चिढ़ाते हैं।’

रानी के मन में अब रह-रहकर इसी बात का पश्चाताप उठता है कि यदि वह सच्चाई को पहले पहचान लेती, अपनी गंदी आदत छुड़ा लेती तो क्यों यह दुर्दिन देखना पड़ता।

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