राजा की सनक
बहुत दिन पहले समस्तीपुर जिले में एक राजा राज्य करता था। उसका नाम सुंदरसिंह था। यों सुंदरसिंह के पास प्रजा की भलाई के लिए अनेकों काम थे।
जैसे कि वह जगह-जगह धर्मशाला बनवा सकता था, तालाब खुदवा सकता था। रिश्वत, भ्रष्टाचार और बेईमानी को दूर करने के उपाय सोच सकता था, पर राजा व्यर्थ की, बिना उपयोग की बातें अधिक सोचता था।
उदाहरण के लिए एक बार उसने अपने मंत्री को आज्ञा दी कि राज्य में जितनी भी मछलियाँ हैं, उन सभी को इकट्ठा करके एक बड़े तालाब में छोड़ दिया जाए। मंत्री बेचारा कह भी क्या सकता था?
वह तो राजा का अनुचर ठहरा, पूरे एक महीने में बड़ी कठिनाई से यह कार्य पूरा हो पाया। मंत्री ने सेनापति से सारी बातें कहीं। सेनापति ने राज्य के सारे मंत्रियों को बुलाया और गोष्ठी की ।
सभी ने एक मत से यही निर्णय किया कि राजा को एक बार अच्छी तरह सबक सिखाना चाहिए। इस तरह सभी का श्रम और शक्ति बरबाद होती है । इतना श्रम और समय प्रजा की भलाई में लगाया जाए तो उससे कुछ लाभ भी हो।
अभी इस घटना को दो ही महीने बीते थे कि राजा ने सेनापति को बुलाया और आज्ञा दी – ” सेनापति ! राज्यभर में जो तीन सबसे बड़े मूर्ख हों, उन्हें एक महीने में दरबार में लाकर उपस्थित करो, पर ध्यान रखना, उनसे बड़े मूर्ख कहीं ढूँढ़े भी न मिलें। नहीं तो तुम्हारा सिर सही सलामत नहीं रहेगा।”
” पर आप उन मूर्खों का करेंगे भी क्या महाराज ! सेनापति ने मन ही मन कुढ़ते हुए पूछा।”
” अरे करेंगे क्या ? उन तीन मूर्खराजों को ‘मूर्ख शिरोमणि’ की उपाधि देंगे और एक-एक जागीर देंगे।” राजा ने दंभ से मुँह फुलाते हुए कहा ।
सेनापति मूर्खों की तलाश में चला तो गया, पर मन ही मन वह सोचता जा रहा था कि अबकी बार तो राजा को अच्छा ही सबक सिखाना है। उसकी बेवकूफी भरी बातें आखिर किस प्रकार से छूटें ?
बीस-पच्चीस दिन बाद सेनापति घूमकर लौटा। वह सीधा राजसभा में जा पहुँचा। दरबार लगा हुआ था। सभी मंत्री अपने- अपने सिंहासनों पर बैठे थे। सेनापति को देखते ही सुंदरसिंह ने पूछा – “कहिए ! खोज पूरी हुई आपकी ?”
“जी महाराज ! सेनापति ने झुककर प्रणाम करते हुए कहा और अपने पीछे खड़े हुए आदमी की ओर इशारा किया।”
“ह-ह-ह ! तो ये हैं, हमारे राज्य के सबसे बड़े मूर्ख । ” राजा अट्टहास करते हुए कहने लगा। “सुनें तो क्या मूर्खता का काम किया है इन्होंने । “
सेनापति कहने लगा—“राजन! इस व्यक्ति का परिवार भूख से विलख रहा है। बच्चे रो रहे हैं, पत्नी हड्डियों का ढाँचा भर रह गई है, पर यह फिर भी कुछ काम नहीं करता।
इससे किसी ने कह दिया था कि प्रसन्न होने पर संतोषी माता धन की वर्षा करती हैं। बस यह सारा काम छोड़कर एक वर्ष तक संतोषी माता को रिझाता रहा, पर काम न करने वालों की देवी-देवता भी कभी सहायता नहीं करते हैं ? इसे धन न मिलना था और न मिला। इस बीच घर का सामान बिक गया, पेट तो आखिर भरना ही था न । “
एक महीने पहले इस मूर्ख ने किसी को कहते सुना था कि रुपया रुपये को खींचता है। बस फिर क्या था, उसने तुरंत एक साहूकार के यहाँ नौकरी कर ली। जब भी यह खाली होता, जेब से रुपया निकालकर तिजोरी के छेद पर लगाने लगता।
इसे पूरा विश्वास है कि एक न एक दिन इसका रुपया तिजोरी के रुपयों को जरूर खींच लेगा। इसी चक्कर में इसके सौ रुपये हाथ से छूटकर तिजोरी में गिर चुके हैं।
सेनापति की बातें सुनकर सारे दरबारी हँसे बिना न रह सके। राजा ने तुरंत अपने गले का बहुमूल्य रत्नों का हार निकालकर उस मूर्खराज के गले में पहना दिया।
सभी को उत्सुकता होने लगी कि अब देखें कि दूसरा और तीसरा मूर्ख कौन है? तभी राजा ने आज्ञा दी – ” अब दूसरे मूर्ख को प्रस्तुत किया जाए। “
कुछ झिझकते हुए सेनापति बोला- “महाराज ! हमारे राज्य के दूसरे और तीसरे मूर्ख इस दरबार में ही मौजूद हैं।” “हमारे दरबार में?”
राजा ने आश्चर्य से प्रश्न किया । कौन हैं वे ?
“महाराज! मैं उनका नाम नहीं ले सकता, नहीं तो वे मुझे मरवा देंगे।” सेनापति बोला- “अरे! मेरे रहते तुम प्राणों की चिंता मत करो। निर्भीक होकर कहो।” राजा ने आश्वासन देते हुए कहा।
“तो महाराज ! बुरा न मानें, राज्य के दूसरे मूर्ख आप ही हैं।” ‘क्या मतलब ?” राजा ने गुस्से में भरकर पूछा ।
“मतलब बिलकुल साफ है। जो राजा विद्वानों की खोज न कराकर मूर्खों की खोज कराए, विद्वानों को पुरस्कार न देकर मूर्खो को दे उससे और कहा भी क्या जाएगा ?” सेनापति ने गंभीर होते हुए कहा ।
‘और तीसरा मूर्ख कौन है ?” राजा ने उत्सुकता से पूछा ।’वह मैं ही हूँ। जो मूर्खों को ढूँढ़ने निकला। क्यों न मैंने यह काम करने से पहले नौकरी छोड़ दी। मूर्ख स्वामी की सेवा करने वाले कर्मचारी भी धीरे-धीरे मूर्ख बन जाते हैं।” सेनापति कह रहा था और सारे दरबारी सिर हिलाकर समर्थन कर रहे थे।
सेनापति की बातों से राजा की आँखें खुल गईं। उसने भरी सभा में प्रतिज्ञा की कि अब ऐसे व्यर्थ के कामों में अपनी शक्ति बरबाद नहीं करेगा। मंत्री-सेनापति सभी राजा के इस निर्णय से बड़े खुश हुए। इसके बाद राज्य के किसी कर्मचारी को फिर राजा की कोई सनक नहीं सहनी पड़ी।