दृढ़ निश्चयी मीरा
मीरा राजस्थान अपने को भगवत के मेड़ता घराने में जन्मी, उनका विवाह चित्तौड़ के राजकुमार से हुआ । वे मन से अपने को भगवत समर्पित मानती थी और भक्त के साथ-साथ असाधारण रूप से साहसी भी थीं । मीरा विधवा हो जाने पर उनने अपना जीवन परमार्थ प्रयोजनों में लगाने की ठानी । ससुराल परिवार रूढ़िवादी होने से घर से बाहर नहीं निकलने देता था। उन्हें पिंजड़े की पंछी की तरह घुट-घुट कर मरना स्वीकार न था । वे अपनी प्रतिज्ञा पर अड़ी रहीं और संत गोष्ठियों में सम्मिलित रहकर धर्म प्रचार के निमित्त परिभ्रमण करती रहती थीं ।
ससुराल वालों के अनेक त्रासों और प्रतिबंधों की परवाह न करती हुई वे कहती थीं-“साधु संग बैठि-बैठि लोक लाज खोई ।”
त्रासों को सहन करती हुईं वे कहती थीं- “राणाजी रूठे तो म्हारो काँई करशी” उन्हें अपनी मृत्यु तक की रैदास चमार थे ।
मीरा ने उन्हें अपना गुरु बनाया । राजपूत परंपरा के अनुसार यह अनुचित था पर उसने परवाह न थी ।
अपनी आत्मा की आवाज के सामने किसी की परवाह नहीं की । यहाँ तक कि चित्तौड़ के राज परिवार में रानियों, राजकुमारियों के मन में रैदास के प्रति श्रद्धा भावना उत्पन्न की । वे भगवान की कृपा मुफ्त में माँगने पर विश्वास नहीं करती थीं । वरन् अपना सब कुछ भगवान के काम में आने के लिए सुपुर्द करती थीं । वे गाती थीं-“सखी री मैंने गिरधर लीन्हों मोल” । मीरा को दृढ़ निश्चयी और साहसी भक्तों में गिना जाता है ।