मंत्री भद्रजित की देवकृति
राजा बालीक ने किसी बात पर रुष्ट होकर प्रधान आमात्य भद्रजित को पदच्युत कर दिया । सौचा इससे उन्हें प्रताड़ना मिलेगी और होश ठिकाने आयेंगे । जन सम्मान सकता है । के बिना कौन सुखी रह भद्रजित की आदर्शनिष्ठ बुद्धि अडिग रही, प्रेरणा हुई-लोकमंगल के लिए पद नहीं, श्रेष्ठ भावना चाहिए ।
उन्होंने जन संपर्क साधा और लोक-सेवा के कार्यों में संलग्न हो गए । सहयोग पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ा ।
फलतः भद्रजित के सुख-संतोष में भी वृद्धि हो गई । राजा की इच्छा हुई कि अमात्य को मिली प्रताड़ना का प्रतिफल आँखों देखें । सो वे छद्म वेश बनाकर वहाँ जा पहुँचे जहाँ भद्रजित उन दिनों निवास कर रहे थे ।
राजा ने देखा भद्रजित बिल्कुल सहज स्थिति में हैं। अभाव का कोई चिह्न नहीं था । कुशल क्षेम पूछी तथा राज्यपद न रहने की प्रतिक्रिया जाननी चाही ।
भद्रजित ने कहा- “मेरे ऊपर राजा ने बड़ा उपकार किया । मुझे यह समझने का अवसर मिला, कि पद की अपेक्षा अपने कर्म और व्यवहार का प्रभाव कितना अधिक सार्थक होता है । आज मेरे और मेरी आराध्य जनता के बीच केवल स्नेह सूत्र हैं। पद, प्रतिष्ठा और औपचारिकता की खाई पट चुकी है । सुख-दुःख में एक होने का अवसर मिला । जो आत्मीयता अब अनुभव हुई वह पहले कहाँ थी ?”
सीख: राजा समझ गए सत्पुरुष पद से नहीं, अपनी देवोपम प्रवृत्तियों से सम्मान पाते हैं ।