बिच्छू और केकड़ा

एक नदी तट पर बिच्छू और केकड़ा पास-पास रहते थे । जान-पहचान मित्रता के रूप में बढ़ने लगी मिल जाते तो घुल-घुल कर बातें करते ।

एक दिन बिच्छू बोला–” मित्र ! तुम्हें पानी में तैरते देखता हूँ तो आनंद भी आता है और ईर्ष्या भी । आनंद इस बात का कि तैरते समय तुम्हें कितनी प्रसन्नता होती होगी । ईर्ष्या इस बात से कि मैं वैसा भाग्यशाली न बन पाया, जिससे कि तुम्हारी तरह तैरता और आनंद लेता ।”

केकड़ा उसका प्रयोजन समझ गया, बोला-“पीठ पर बैठ कर सैर करा देने में तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है; किन्तु दोस्त तुम स्वभाव न छोड़ोगे और डंक मार कर मेरे लिए प्राण-संकट खड़ा करोगे ।”

बिच्छू ने कहा-“मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ, जो उपकारकर्त्ता को डंक मारूँ । आपके मरने पर मैं भी तो डूबूँगा ।”

केकड़े को विश्वास हो गया । उसने बिच्छू को पीठ पर बिठा कर तैरना आरंभ किया । बिच्छू को मस्ती आई शपथ की याद ही नहीं रही और डंक उसकी पीठ में चुभो दिया ।

केकड़ा तिलमिलाया । बेचैनी में पानी में डूबा और बिच्छू भी जल में डुबकी लेने लगा । मरते समय केकड़े को यह समझ आई कि दुष्ट को सज्जन बनाने का काम संतों पर छोड़कर साधारण लोगों को तो उनसे बचे रहने में ही खैर है ।

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