विदुर का भोजन और श्रीकृष्ण

विदुर जी ने जब देखा कि धृतराष्ट्र और दुर्योधन अनीति करना नहीं छोड़ते, तो सोचा कि इनका सान्निध्य और इनका अन्न मेरी वृत्तियों को भी प्रभावित करेगा । इसलिए वे नगर के बाहर वन में कुटी बनाकर पत्नी सुलभा सहित रहने लगे । जंगल से भाजी तोड़ लेते, उबालकर खा लेते तथा सत्कार्यों में, प्रभु स्मरण में समय लगाते ।

श्रीकृष्ण जब संधि दूत बनकर गए और वार्ता असफल हो गयी तो वे धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य आदि सबका आमंत्रण अस्वीकार करके विदुर जी के यहाँ जा पहुँचे। वहाँ भोजन करने की इच्छा प्रकट की ।

विदुर जी को यह संकोच हुआ कि शाक प्रभु को परोसने पड़ेंगे ? पूछा- “आप भूखे भी थे, भोजन का समय भी था और उनका आग्रह भी, फिर आपने वहाँ भोजन क्यों नहीं किया ?”

भगवान बोले- “चाचाजी ! जिस भोजन को करना आपने उचित नहीं समझा मुझे भी कैसे रुचता ? जिसमें आपने स्वाद पाया, उसमें विदुर जी , जो आपके गले न उतरा, वह मुझे स्वाद न मिलेगा, ऐसा आप कैसे सोचते हैं ?”

विदुर जी भाव विह्वल हो गए, प्रभु के स्मरण मात्र से ही हमें जब पदार्थ नहीं संस्कारप्रिय लगने लगते हैं, तो स्वयं प्रभु की भूख पदार्थों से कैसे बुझ सकती है । उन्हें तो भावना चाहिए । उसकी विदुर दम्पत्ति के पास कहाँ कमी थी। भाजी के माध्यम से वही दिव्य आदान-प्रदान चला। दोनों धन्य हो गए ।

स्वार्थी व्यक्ति उदारता पूर्वक सुविधाएँ देने का प्रयास करते हैं, कर्तव्य भाव से नहीं, इसलिए कि उसका अहसान जताकर अपनी मनमानी करवा सकें । ऐसी सुविधाएँ न भगवान ही स्वीकार करते हैं, न उनके भक्त । दोनों उनसे परहेज करते हैं ।

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