संकल्प
अभय अपने भाई-बहिनों में सबसे बड़ा था। उसके माता-पिता उसे बड़ा स्नेह करते थे। उनकी इच्छा थी कि उनका बेटा योग्य बने, गुणवान बने- उसे निरंतर अच्छी बातें सिखाते रहते। अभय भी माता-पिता का कहना मानता, उनको प्रसन्न रखने के लिए अच्छे-अच्छे काम करता, अच्छे गुणों को अपनाता, पर अभय के बहुत सारे अच्छे गुण भी उसके एक दुर्गुण से फीके पड़ जाते।
वह दुर्गुण था-जरा-जरा सी बात पर गुस्सा करना । अभय की माँ उसे बहुत समझाती कि वह इतना क्रोध न किया करे। अभय भी कई बार यह कह देता कि अब वह गुस्सा नहीं करेगा, पर समय आने पर वह अपनी बात भूल जाता और फिर अपना आपा खो बैठता।
अभय के माता-पिता बहुत से गुणों के कारण जहाँ अपना बेटे पर गर्व करते थे वहीं दूसरी ओर उसकी तुनक मिजाजी और गुस्से के कारण उन्हें कभी-कभी दूसरों के सामने भी अपना सिर झुका लेना पड़ता था।
एक बार अभय का जन्मदिन था। घर मेहमानों से भरा था। अभय को खूब सारे उपहार दिए जा रहे थे। बच्चे गाने सुना रहे थे। बड़ा ही प्रसन्नता भरा वातावरण था। सहसा ही किसी चीज के गिरने की ध्वनि हुई इसके साथ ही सबका ध्यान अभय के थप्पड़ और एक बच्चे के जोर-जोर से रोने की आवाज ने आकर्षित कर लिया।
बच्चा अब और जोरों से चीखे जा रहा था, उसके गाल पर अभय की ऊँगलियों के निशान उभर आए थे। मुँह से खून बह रहा था। बच्चे की माँ तुरंत वहाँ दौड़ी गई। अपने बेटे को उसने गोद में उठाया और अभय से बोली- यह छोटा नादान बच्चा है, बेटे, मारने से क्या लाभ ?” फिर वह बच्चे को चुप कराने बाहर चली गईं। जिससे वातावरण बोझिल न बने।
बच्चे के बहुत जोर से लगी थी। बाहर से भी उसकी जोर-जोर से लगातार चीखने की आवाजें आ रही थीं। सभी मेहमान अभय को बड़ी तिरस्कार भरी दृष्टि से देख रहे थे। वे सोच रहे थे कि इतनी छोटी सी बात पर इतना जोर का गुस्सा करने की आखिर जरूरत भी क्या है ? बात यह थी कि वह छोटा चंचल बच्चा सारे कमरे में दौड़ रहा था।
कभी किसी के पास जाता तो कभी किसी के। अभय के पास भी वह दौड़-दौड़कर जा रहा था। इस बार दौड़कर जाने में वह उसके पास रखी उपहारों की मेज से टकरा गया था। अभय को उपहार में मिली शीशे की एक मछली सहसा ही नीचे गिर पड़ी और चूर-चूर हो गई। यह देखकर अभय अपना आपा खो बैठा और पूरी शक्ति से उसने बच्चे के गाल पर तमाचा जड़ दिया था।
मेहमानों ने मुँह से तो कुछ न कहा था, पर उनके चेहरे पर अभय के इस काम के प्रति उपेक्षा और तिरस्कार साफ झलक रहा था। इसके बाद वातावरण बोझिल हो गया। अभय की माँ ग्लानि से भर उठीं, पर उन्होंने मेहमानों के सामने उससे कुछ न कहा।
मेहमानों के चले जाने पर अभय की माँ ने उसे समझाते हुए कहा- बेटा, इतना क्रोध न किया करो। तुम समझते नहीं, आज तुम्हारे गुस्से के कारण मुझे और तुम्हारे पिताजी को कितना लज्जित होना पड़ा है।”
यह सुनते ही अभय तुनककर बोला-‘और उस बच्चे ने जो इतना गलत काम किया था, उससे कुछ न बोला गया।’ ‘डेढ़ साल का नादान बच्चा था, क्या कहती मैं उससे ?’ माँ बोली।
अभय तेज आवाज में बोला- तुम्हें तो बस हर समय, हर काम में मेरी गलती ही दिखलाई देती है। कोई मेरा काम बिगाड़े, यह मैं सह नहीं सकता। उसे मैं मारूँगा ही, कोई मुझे रोक नहीं सकता।’
इसके बाद अभय खाना बीच में ही छोड़कर उठ गया। माँ के बार-बार मनाने और समझाने पर भी वह रूठकर लेटा ही रहा और भूखा ही सो गया।
इसके कुछ समय बाद की बात है। अभय के माता-पिता को अचानक ही गाँव जाना पड़ा। वहाँ अभय की दादी बहुत बीमार हो गई थी। अभय का घर और छोटे भाई-बहिनों का उत्तरदायित्व सौंपकर उसके माता-पिता गाँव चले गए।
अभय कुशल तो था ही। उसने बड़ी होशियारी से छोटे भाई-बहिनों को सँभाल लिया। खाना बनाने से लेकर भाई-बहिनों को नहलाने, घर की सफाई करने तक का सारा काम अभय कर लेता था। भाई-बहिनों का मन लगा रहे, उन्हें माता-पिता की अधिक याद न आए – इसके लिए वह उन्हें भाँति-भाँति के खेल भी खिलाता था।
एक दिन खेलते हुए छोटा भाई अभय को चिढ़ाने लगा। अभय के बार-बार मना करने पर भी वह नहीं माना। गुस्से में आकर उसने अपनी नुकीली पेंसिल जिससे वह ड्राईंग बना रहा था, भाई की ओर फेंककर मारी! पेंसिल तेजी से आकर आँख में लगी। छोटा बच्चा दर्द से बिलबिला उठा, उसके मुँह से चीख निकल गई।
अभय अभी उसे और डाँटना ही चाह रहा था कि उसकी दृष्टि बाईं आँख से टपकते खून पर गई, अब तो अभय डर गया। वह पास जाकर भाई को पुचकारने लगा। बड़ी मुश्किल से बहुत देर बाद चुप हुआ, अभय ने उसे अच्छी तरह धमकाया कि माँ को इस विषय में उसने कुछ भी बताया तो उसकी खैर नहीं है।
दूसरे दिन प्रातः काल माता-पिता लौट आए। पिताजी तो खा-पीकर आफिस चले गए। बाद में माँ का ध्यान छोटे भाई संजय की आँख की ओर गया। ‘अरे, क्या हुआ है तेरी आँख में ?’ उन्होंने पूछा।
पास बैठा अभय तुरंत बोल पड़ा-माँ पता नहीं क्यों इसकी आँख अपने आप ही सूज गई है।’ अभय की आँखें देखकर संजय की भी कुछ बोलने की हिम्मत न पड़ी। संजय की आँख का दर्द और सूजन लगातार बढ़ते ही गए तो माँ उसे लेकर आँखों के डाक्टर के पास गई। पूरी तरह आँख को देखने-जाँचने के बाद डाक्टर बोला- इसमें तो जरूर कुछ लगा है। क्या लगा है, पूरी बात बताइए जिससे मैं ठीक-ठीक इलाज कर सकूँ।’
‘कुछ भी लगा’ संजय अभी भी कह रहा था। अभी उसे भाई की मार का डर लगा हुआ था।
‘देखो बच्चे, तुम्हारी आँख की पुतली में भी घाव हो चुका है। बस यों समझ लो कि यदि तुम अभी भी सच्ची बात नहीं बताओगे तो तुम्हारी आँख फिर कभी ठीक नहीं होगी। फिर तुम एक आँख से ही देखा करोगे’ डाक्टर ने सही बात जानने के लिए संजय को डराते हुए पूछा ।
यह सुनकर संजय डर गया और रोते हुए उसने पूरी बात बता दी। ‘ओह’, तभी तो मैं सोच रहा था कि नुकीली वस्तु के चुभाए बिना इतना गहरा घाव आँख में हो नहीं सकता।’ संजय की माँ की -ओर देखते हुए डाक्टर बोला।
“डॉक्टर की बात सुनकर माँ तो परेशान ही हो उठीं।’ अब में क्या करूँ डाक्टर साहब ? कैसे यह ठीक होगा ? घबराकर वह कहने लगीं।
‘बच्चे को लेकर तुरंत आप अलीगढ़ चली जाइए और वहाँ के नेत्र चिकित्सालय में दिखलाइए। वहीं इसका इलाज संभव है’ डॉक्टर समझाने लगा। उसने वहाँ के डाक्टरों के नाम पत्र भी लिखकर दे दिया।
दूसरे ही दिन संजय को लेकर माता-पिता दोनों अलीगढ़ पहुँच गए। आँख देखकर डाक्टर ने कहा-‘आपने आने में देर कर दी है, फिर भी हम प्रयास करेंगे। पुतली में बहुत गहरे घाव हो गए हैं। आपरेशन ही करना पड़ेगा।’
संजय को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया था। डेढ़ महीने वह वहाँ रहा। थोड़े-थोड़े दिनों बाद उसकी आँख के तीन आपरेशन किए गए। आँख की रोशनी तो वापिस आ गई पर, संजय को हमेशा के लिए चश्मा लगाना पड़ गया।
अभय को तनिक भी उम्मीद न थी कि उसका क्रोध दुष्परिणाम सामने लाएगा। भाई की स्थिति के लिए वह स्वयं को जिम्मेदार समझ रहा था। वह सोच रहा था कि माताजी – पिताजी – उसे खूब डाँटेंगे। डाँटना भी चाहिए, कितनी बड़ी भूल जो की है मैंने’ मन ही मन वह कहता।
घर लौटने के बाद भी न तो संजय ने और न ही माता-पिता ने अभय से कुछ कहा। हाँ, माँ ने उससे बोलना जरूर कम कर दिया था। अभय को बड़ी आत्मग्लानि होती । चश्मा लगाकर भी संजय को आँख में कुछ भेंड़ापन -सा लगता था।
अभय जब भी उसे देखता मन में यही सोचता ‘ओह, मेरे ही कारण मेरे सुंदर भाई की आँख खराब हो गई। मन ही मन वह बड़ा दुःखी रहता, उसने संकल्प किया कि अब कभी भी गुस्सा नहीं करेगा, गुस्से में तोड़-फोड़ और मारपीट नहीं करेगा। जब भी ऐसा घटना घटती, उसे गुस्सा आने को होता तो वह तुरंत वहाँ से हटकर अकेले जा बैठता।
अपने आपको वह जोर-जोर से बोलकर समझाता – तुम्हें गुस्सा नहीं करना है । गुस्से से बहुत हानि होती है। तुम्हें तो अच्छा लड़का बनना है।’ गुस्सा कम होने पर वह बाहर आकर फिर सबके साथ इस प्रकार हँसने-बोलने लगता जैसे कुछ हुआ ही न हो। इस प्रकार धीरे-धीरे अभ्यास और लगन से अभय को गुस्सा करने की आदत छूट गई।
जिस आदत को हम सच्चे मन से बदलने की प्रतिज्ञा कर लेते हैं, वह निश्चित ही बदल जाती है। अभय अब घर-बाहर सभी का स्नेही पात्र बन गया है। सभी की दृष्टि में वह एक गुणवान और हँसमुख बालक है।