भाइयों का स्नेह
अभयारण्य में अनेक जीव-जंतु रहा करते थे। मुनमुन और चुनचुन खरगोश भी उन्हीं में से थे। वे दोनों सगे भाई थे। दोनों ही एक दूसरे को बहुत प्यार करते थे, पर एक बार कुछ जानवरों ने दोनों को भड़का दिया। वे दोनों आपस में लड़ पड़े और अलग-अलग रहने लगे। उनकी लड़ाई देखकर कुछ दुष्ट जानवरों को बड़ा अच्छा लगा।
वे मुनमुन से चुनचुन की बुराई करते, झूठी झूठी बातें एक-दूसरे के विषय में कहते, पर चुनचुन और मुनमुन सदा आँखें बंद करके दूसरों की बातों पर विश्वास कर लेने वाले मूर्ख भी न थे। अब वे सचाई को जानने लगे थे और एक दूसरे को समझकर चलने की कोशिश करने लगे थे।
कुछ ही दिनों में दोनों ने यह बात समझ ली कि दूसरों के बहकावे में आकर उन्होंने गलत किया है। अब दोनों को बड़ा ही पछतावा होता कि हाय न जाने किस कुघड़ी में दूसरों की बातों में आकर उन्होंने अपना घर बिगाड़ लिया।
गलती करना उतना बुरा नहीं है जितना कि गलती को समझकर भी उसे सुधारने की कोशिश न करना । दोनों भाई सोचने लगे कि गलती को कैसे दूर किया जाए। जहाँ चाह होती है वहाँ राह निकल ही आती है, जल्दी ही उन्हें रास्ता मिल गया।
मुनमुन खरगोश कई दिनों से देख रहा था कि चुनचुन दुबला होता जा रहा है। “बेचारा छोटा ही तो है, अभी पता नहीं ठीक से खाना ढूँढ़कर खा पाता है या नहीं। मैंने उसे अलग करके बुरा किया।” मुनमुन ने सोचा।
उधर चुनचुन भी कई दिनों से देख रहा था कि बड़े भइया बड़े ही उदास और थके हुए रहते हैं। उसने मन ही मन सोचा कि भइया पर बहुत अधिक काम आ गया है। पहले तो मैं घर का काम कर लिया करता था और भइया खाना ढूँढ़कर लाते थे। अब वे
बाहर का भी काम करते थे और घर का भी । थकेंगे नहीं तो और क्या होगा ? वे दुबले न होंगे तो क्या होगा ? हाय धिक्कार है मुझे जो दूसरों के कहने में आकर इतना स्नेह करने वाले शुभ चिंतक भाई को छोड़ दिया। अरे, वे बड़े हैं, गुस्से में कुछ सुना दिया तो क्यों मैंने इतना बुरा माना ? मैं उनके पैरों पर गिर जाता, क्या तब भी मुझे घर से निकाल देते ?
बस फिर क्या था। दूसरे ही दिन चुनचुन सुबह से ही यह देखने लगा कि भइया कब काम पर जाएँ। मुनमुन के जाते ही वह तुरंत उसके घर घुस गया। सारा सामान इधर-उधर बिखरा पड़ा था। खाने-पीने की चीजें यों ही पड़ी थीं।
बहुत दिनों से किसी ने उनसे हाथ ही न लगाया था, पता नहीं भइया ठीक से खाते-पीते भी हैं या नहीं। चुनचुन ने मन ही मन सोचा फिर वह सफाई के काम में जुट गया। कुछ ही समय में घर का कोना-कोना चमकने लगा। मन लगाकर जो काम किया जाता है, उसका प्रभाव ही निराला होता है।
अपने घर जाकर चुनचुन ने दो-चार गाजरें खाईं और ऊपर से पानी पी लिया। खाने के लिए एक छोटा-सा गाजर का ढेर चुनचुन के पास था, जो अलग होते समय भाई ने दिया था। बहुत भूख लगने पर चुनचुन उसी में से थोड़ी-सी गाजरें निकालकर खा लिया करता था। अकेले-अकेले उसकी न कुछ खाने की इच्छा होती थी और न ही भूख ठीक से लगती थी। सूना-सूना घर काटने को दौड़ता था। यही कारण था कि वह गाजरें अभी तक पड़ी हुईं थीं।
उधर उस दिन मुनमुन अपने घर से निकलकर सबसे पहले चुनचुन के यहाँ गया था। जब उसे यह विश्वास हो गया कि घर में कोई नहीं है तो वह चुपके से अंदर घुस गया। उसकी निगाह गाजर के ढेर पर पड़ी। ‘ओह! देखो तो, छोटा कुछ नहीं खाता। सारी गाजरें ज्यों की त्यों पड़ी हैं।’ मुनमुन बड़बड़ाया। फिर उसने पोटली खोलकर साथ लाई हुई गाजरें उस ढेर में मिला दीं।
रास्ते भर मुनमुन सोचता गया कि प्यारे भाई को उसने गुस्से में भर कर अलग कर दिया-यह बहुत ही गलत हुआ। कैसे अन उसे वह वापिस बुलाए ? जिसे हम सच्चे हृदय से स्नेह करते हैं उसे दुःखी नहीं देख सकते। उसके सुख और संतोष के लिए हम हर संभव उपाय अपनाते हैं।
दिन भर का हारा थका मुनमुन शाम को घर पहुँचा। घर में घुसते ही वह चौंक पड़ा। सारा घर साफ-सुथरा पड़ा था। और चमाचम चमक रहा था, सहसा ही उसे चुनचुन की याद आ गई। मुनमुन की आँखों में आँसू भर आए। ‘जरूर वही आज आया होगा, नहीं तो किसे पड़ी है यह सब काम करने की ? क्यों करने लगा यह ?’ मन में मुनमुन ने सोचा ।
थका हुआ मुनमुन बिना कुछ खाए-पिए ही लेट गया। आज चुनचुन की बहुत अधिक याद आ रही थी। सहसा ही उसे वह उसे दिन याद आ गए जब चुनचुन और वह मिलकर रहते थे, हँसते-बतियाते थे, मुनमुन के बाहर से लौटकर आते ही चुनचुन खुशी से भर उठता था। वह तुरंत दौड़कर खाने-पीने की चीजें लाता था।
बड़े आग्रह के साथ भाई को खिलाता था। फिर चुनचुन बड़े भाई के कभी पैर दबाता तो कभी सिर सहलाता। दोनों भाई मौज-मजे में रहते थे। उनकी यही खुशी तो पड़ौसियों से देखी नहीं गई थी और उनमें फूट डलवा दी थी। यही सोचते-सोचते मुनमुन को नींद आ गई।
दूसरे दिन जब मुनमुन की आँखें खुली तो सूरज काफी चढ़ चुका था वह आँखें मलता हुआ उठ बैठा। फिर वह जल्दी से तैयार होकर बाहर जाने के लिए निकल पड़ा। आज वह चुनचुन को अच्छी लगने वाली ढेर सारी चीजें जल्दी उसके घर पहुँचाना चाहता था।
मुनमुन जब घर से बाहर दूर निकल गया तो उसे सहसा ही याद आया कि आज तो वह टोकरी लाना ही भूल गया है। ढेर सारा सामान फिर चुनचुन के पास कैसे पहुँचाया जा सकता था ? तुरंत वह वापिस घर की ओर चल पड़ा।
द्वार पर जाकर मुनमुन ठिठक गया। दरवाजा खुला पड़ा था ‘मेरी अनुपस्थिति में यह कौन घुस आया ? कहीं चुनचुन ही तो नहीं है ?’ ऐसा सोचकर मुनमुन तेजी से अंदर घुसा। उसने देखा कि चुनचुन उसकी ओर पीठ किए तेजी से सफाई में जुटा है। मुनमुन ने पीछे से जाकर उसे कसकर पकड़ लिया।
सहसा ही चुनचुन चौक पड़ा। उसने हड़बड़ाकर गर्दन घुमाई तो देखा कि सामने बड़ा भइया खड़ा है। संकोच से पलभर को चुनचुन की पलकें झुक गईं। फिर वह मुनमुन के गले से लिपटते हुए बोला-‘दादा, मुझे माफ कर दो अब मैं कभी गलती नहीं करूँगा, तुम्हारी बात का बुरा नहीं मानूँगा ।’
मुनमुन प्यार से उसके सिर पर हाथ फिराते हुए बोला- छोटे, अब तुम यहाँ से कभी नहीं जाओगे। हम तुम सदैव एक साथ ही रहेंगे। दूसरों के बहकाने में आकर गुस्से में हम दोनों ही गलती कर बैठे थे। आओ अब अपनी गलती सुधार लें।’
उस दिन बहुत दिनों बाद दोनों भाइयों ने भरपेट खाना खाया, घंटों तक वे एक-दूसरे को अपनी-अपनी बातें बताते रहे।
मुनमुन-चुनचुन का प्रेम देखकर जंगल में कुछ जानवरों को बड़ा बुरा लगा। उन्होंने फिर उनमें लड़ाई करवाने की कोशिश की, पर इस बार उन्हें निराश ही होना पड़ा। चेता लोमड़ी, कालू सियार और कक्कू भेड़िया जब भी मोटे-ताजे मुनमुन-चुनचुन को देखते हैं तो होठों पर जीभ फिराकर ही रह जाते हैं।
ठीक ही तो है-संगठन से ही सुरक्षा और बल मिलता है। अपने शुभ चिंतकों से, आत्मीयजनों से लड़-झगड़ कर रहने से तो दुर्जनों को लाभ उठाने का अवसर मिल जाता है और हमारी परेशानियाँ ही बढ़ती हैं।