बीमारियों की जड़

एक बार भास्कर नाम का एक सिंह और उसकी पत्नी रानी घूमते-घूमते अपनी गुफा से बहुत दूर निकल गए। बातों ही बातों में उन्हें रास्ते का कुछ पता ही न रहा और वे नदी के पार बसे हुए दंडकारण्य वन में जा पहुँचे।

रानी को यह वन बहुत अधिक पसंद आया। चारों ओर पहाड़ियाँ उनकी गोद में फैली हरियाली, कल-कल, छल-छल करके बहती नदी सभी ने उसके मन को मोह लिया । सिंहनी ने अपने पति को स्पष्ट निर्णय सुना दिया ‘आज से हम दंडकारण्य में ही रहेंगे।’

भास्कर ने भी इसका विरोध न किया। उसे स्वयं भी देशाटन अच्छा लगता था। वह सदैव यही कहता था कि स्थान-स्थान पर घूमने से बहुत अधिक ज्ञान बढ़ता है।

दूसरे भास्कर का स्वभाव भी बहुत अच्छा था। वह जहाँ भी जाता था, जल्दी ही वहाँ के प्राणियों में घुलमिल जाता था। यही नहीं कि विनयशीलता, परोपकार, अनुशासन, सत्यवादिता, सच्चरित्रता आदि गुणों के कारण ही वह बहुत लोकप्रिय हो जाता था।

भास्कर के गुणों के कारण दंडकारण्य के जीव-जंतु भी थोड़े ही दिनों में उसे बहुत चाहने लगे। संयोग की बात कि कुछ ही दिनों बाद दंडकारण्य का राजा मर गया। कौन राजा हो ?

इस विषय को लेकर सभी प्राणी चिंतित हो उठे। चिंता की बात भी थी। अयोग्य और अत्याचारी शासक अपनी बुद्धिहीनता से, स्वार्थपरता से प्रजा का शोषण करता रहता है, ऐसे राजा से तो राजा के बिना रहना ही अच्छा।

दंडकारण्य के प्राणियों ने बड़े सोच-विचार कर भास्कर को अपना राजा चुना, पर विजयेंद्र नाम के एक सिंह को यह अच्छा न लगा। वह मन ही मन सोच रहा था कि उसे ही राजा चुना जाएगा।

वह अपना विरोध प्रकट करते हुए बोला- एक अपरिचित पर आप कैसे विश्वास कर रहे हैं। शुरू में तो सभी अच्छे दीखते हैं, पर बाद में ही उनके दोष दिखाई देते हैं। राजा चुनना चाहिए उसे जो प्रारंभ से ही हमारे बीच रहा हो, जिसे हम शुरू से ही अच्छी तरह जानते हों।

पर विजेंद्र की इस बात का किसी ने कोई समर्थन न किया। चेता लोमड़ी बोली – भास्कर दादा अब हमारे लिए अपरिचित भी कहाँ हैं ? उन्हें हमारे साथ रहते-रहते पूरे आठ महीने बीत चुके हैं। किसी व्यक्ति को जानने के लिए इतना समय क्या कम होता है ?

राजा भालू बोला— कौन कैसा है ? इसकी परख बुद्धिमान थोड़े ही समय में कर लिया करते हैं। कोई भी अपने स्वभाव को बहुत दिनों तक छिपा नहीं सकता। कृत्रिमता और आडंबर कुछ ही समय तक दूसरों को धोखे में डालते हैं। पद्मा हथिनी बोली – योग्यता और गुणों के आधार पर राजा का चुनाव होना चाहिए, न कि अपने-पराए की संकुचित मनोवृत्ति के आधार पर।

भास्कर आखिर सर्वसम्मति से दंडकारण्य का राजा चुन ही लिया गया। विजयेंद्र अपना सा मुँह लेकर रह गया। उसने बड़े अपमान का अनुभव किया और मन ही मन प्रतिज्ञा की भास्कर से इसका बदला लेकर ही रहेगा।

अब विजयेंद्र भास्कर से बदला लेने का कोई मौका ढूँढ़ता ही रहता। वह हर जगह उसकी बुराई करता, जानवरों को भड़काता । भास्कर को पदच्युत करने के लिए विजयेंद्र ने अनेक षडयंत्र रचे।

वह बस इसी बात को लेकर सोचता, घुलता और कुढ़ता रहता कि किसी भी प्रकार भास्कर को अपमानित करे। इसके लिए वह नई-नई योजनाएँ बनाता, जंगल के प्राणियों को अपनी ओर मिलाने की कोशिश करता।

दूसरों के बहकावे में आकर गलत को भी सही कहने वालों की कहीं भी कमी नहीं होती। विजयेंद्र ने भी जंगल के कुछ मूर्ख प्राणियों को अपनी ओर मिला लिया। वे सभी मिलकर भास्कर के विरुद्ध षडयंत्र रचते ।

इधर भास्कर ने अपने गुणों से प्रजा का मन जीत लिया था। दुर्जन ऊँचा पद पाकर अहं से भर उठते हैं, अपनी शक्ति का प्रयोग दूसरों को पीड़ित करने में करते हैं। इसके विपरीत महान् व्यक्ति ऊँचा पद पाकर और अधिक विनम्र बन जाते हैं तथा अपनी शक्ति का उपयोग दूसरों की सहायता और उपकार में करते हैं।

भास्कर भी ऊँचा पद पाकर और अधिक विनम्र और परोपकारी बन गया था। प्रजा को भलाई सोचने और करने में वह हर समय अपने आपको जुटाए रखता था, अपने पद और अधिकार का प्रयोग उसने कभी भी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं किया था। ऐसा शासक बड़े सौभाग्य से मिलता है फिर भला प्रजा उसे प्यार क्यों न करती ?

देर या सबेर, एक न एक दिन तो सचाई आखिर सामने आती ही है। विजयेंद्र के षडयंत्रों का जल्दी ही भंडाफोड़ हो गया। उसकी करतूतों को जानकर जानवर बड़े क्रुद्ध हुए और उसे मारने के लिए उस पर टूट पड़े।

भास्कर ने बीच-बचाव करके बड़ी मुश्किल से उसे बचाया अन्यथा उस दिन तो विजयेंद्र के प्राण ही निकल गए होते। विजयेंद्र की चापलूसी करने वाले हर समय उसके आगे-पीछे हिलने वाले उसे भड़काने वाले साथियों का पता तक न था।

जिनका कोई सिद्धांत नहीं होता, आदर्श नहीं होता ऐसे चापलूस तभी तक आगे-पीछे घूमते हैं जब तक उनका अहं या स्वार्थ पूरा होता है। वे व्यक्ति को नहीं पद को प्यार करते हैं। व्यक्ति के अधिकार हीन होते ही वे ऐसे मुँह फिरा लेते हैं जैसे वे उसे जानते ही न हों।

भास्कर बहुतेरा न-न करता रह गया, पर जंगल के सभी जानवरों ने सर्वसम्मति में विजयेंद्र के देश निकाले का प्रस्ताव पारित कर दिया। लाचार होकर विजयेंद्र को एक दिन अपनी पत्नी के साथ दंडकारण्य से निकलना ही पड़ा।

विजयेंद्र ने पास के ही एक वन में शरण ली। वह अब भी अपनी गलती मानने को तैयार न था। अभी भी यही कहता रहता “आखिर मैं किस बात से उस भास्कर के बच्चे से कम हूँ ?’

ईर्ष्या और द्वेष की भावनाओं से भरा विजयेंद्र हर समय कुढ़ता और जलता रहता। उसकी पत्नी उसे समझाती ‘देखोजी’ जो हुआ उसे भूल जाओ। यों हर समय सोचते रहने से तो तुम बीमार पड़ जाओगे।’ पत्नी को भी विजयेंद्र डाँटकर चुप कर देता। उसका स्वभाव भी चिड़चिड़ा हो गया था, वह हर समय झल्लाता रहता ।

फल यह हुआ कि जंगल का कोई जानवर उससे बात न करता । चिड़चिड़े और बात-बात में झल्लाने वाले, दूसरों से ठीक से बात न करने वाले के पास आखिर बैठता ही कौन है ?

तन की भावनायें शरीर पर बड़ा गहरा प्रभाव डालती हैं। मन के विकार बड़े घातक होते हैं तथा अनेक शारीरिक बीमारियाँ उत्पन्न कर देते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, छल-कपट, मोह, काम-क्रोध आदि विनाश करने वाले घातक रोग हैं।

तन के रोगों को तो देखा जा सकता है, पर ये ऐसे भयंकर होते हैं कि अंदर ही अंदर छिपकर जड़ जमाकर बैठ जाते हैं और धीरे-धीरे सर्वनाश कर डालते हैं। मन के रोगों के जाल में विजयेंद्र भी ऐसा उलझा कि धीरे-धीरे शैय्या से लग गया। उसके लिए उठना-बैठना भी दूभर हो गया। पत्नी शिकार करके ला देती तो वह थोड़ा-बहुत जैसे-तैसे खा लेता।

विजयेंद्र की ऐसी गंभीर स्थिति देखकर उसकी पत्नी का मन पीड़ा से कराह उठा। उससे आखिर रहा न गया और चुपचाप राजवैद्य देवदत्त सिंह के यहाँ दौड़ी गई । दुःख की अधिकता से उससे कुछ बोला न जा रहा था। उसकी आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे। विजयेंद्र की पत्नी ने देवदत्त के पैर पकड़ लिए और इतना ही कह पाई वैद्यजी, दया कीजिए मेरे पति को बचा लीजिए।

उसकी करुण स्थिति देखकर वैद्यजी का मन भी पिघल गया। बैठो बहिन, धैर्य करो, कहकर उन्होंने आँसू पोंछे। क्या हुआ है तुम्हारे पति को ? वैद्यजी ने पूछा। विजयेंद्र की पत्नी ने निस्संकोच दंडकारण्य से लेकर अब तक की सभी घटनाएँ और स्थितियाँ कह सुनाईं। वैद्यजी बड़े ध्यान से

सारी बातें सुनकर बोले-ओह, तुम्हारे पति को प्रमुख रूप से मन के रोग हैं। हमारे मन में भी अनेक रोग छिपे रहते हैं, पर जब हम इनसे लापरवाह रहते हैं, इन्हें पनपने देते हैं तो हमारे विकास को रोक देते हैं, जीवन को कलह और दुःख से भर देते हैं। मन के रोग ईर्ष्या-क्रोध आदि शरीर के रोगों से भी अधिक भयानक होते हैं।

यही हमारे असली दुश्मन होते हैं। मन के ये रोग अनेक प्रकार के शारीरिक रोगों को जन्म देते हैं, ये शरीर को बीमारियों का घर बना डालते हैं इसलिए बुद्धिमान इनसे सदैव बचते हैं।

फिर कुछ देर रुककर कुछ सोचते हुए देवदत्त बोले- बहिन, तुम मेरे पास देर करके आई हो, फिर भी तुम्हारे साथ चलता हूँ-शायद कुछ हो सके।’

वैद्य देवदत्त ने विजयेंद्र की पूरी तरह जाँच की। ईर्ष्या, द्वेष, कुढ़न आदि मानसिक बीमारियों ने उसका शरीर पूरी तरह से घुला दिया था। वह हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था। उसका चेहरा भी बड़ा भयंकर सा लग रहा था। सच है, जैसे हमारे मन के भाव होते हैं मुख की आकृति भी वैसी ही बन जाया करती है। हमारा मुख वह शीशा है जिसमें बुद्धिमान व्यक्ति हमारे मन के विचारों को पढ़ लेते हैं।

देवदत्त ने विजयेंद्र को समझाया-बच्चे अपने आप को सँभालो, अपने मन पर संयम रखो। अपनी अच्छी या बुरी स्थिति के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं। क्यों अपने आपको बरबाद करते हो ? अपने मन को स्वस्थ बनाओ, प्रसन्न बनाओ, निर्मल बनाओ। तब तुम देखोगे कि तुम्हारी शारीरिक बीमारियाँ भी कितनी जल्दी भाग जाती हैं।

विजयेंद्र को वैद्यजी की बातें बिलकुल भी अच्छी न लगीं । उसने उपेक्षा से मुँह फिरा लिया, उन्होंने भी कुछ कहना ठीक नहीं समझा। दूसरों की बात को कोई महत्त्व न देने वाले दुराग्रही से अधिक कुछ कहने-सुनने से लाभ भी क्या ?

वैद्यजी के चले जाने पर विजयेंद्र ने अपनी पत्नी को बहुत डाँटा कि वह क्यों उन्हें बुलाकर लाई, उसने उनकी बताई कोई दवा भी नहीं ली। यों ही घुलते-घुलते एक दिन विजयेंद्र आखिर मर गया।

उसकी पत्नी फूट-फूटकर रो उठी। वह बार-बार यही सोच रही थी कि मन के विकारों ने मेरे पति को घुला घुलाकर मार डाला। एक साथ मर जाना उतना कष्ट देने वाला नहीं है जितना मानसिक यंत्रणा सहते हुए तिल-तिल करके मरना ।

विजयेंद्र की पत्नी ने दस-बारह दिन इसी शोकमयी स्थिति में बिताए, फिर उसने मन ही मन कुछ विचार किया और एक नये संकल्प के साथ अपनी गुफा से निकल पड़ी। अब वह जगह-जगह घूमकर सभी जीव-जंतुओं को यही समझाया करती है यदि जीवन को सुखी बनाना है, सफल बनाना है तो न केवल शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान रखो वरन् मन को भी प्रसन्न और विकारों से रहित बनाओ !

ईर्ष्या, द्वेष, घमंड, कुढ़न, काम, क्रोध, लोभ आदि भी रोग हैं। ये मन के रोग शरीर के रोगों से अधिक भयानक हैं। शारीरिक रोग तो दिखाई दे जाते हैं और हम उनका उपचार कर लेते हैं, पर मन के रोग ऐसे घातक होते हैं कि दिखायी नहीं देते। ये धीरे-धीरे चुपचाप हमारे शरीर को और शक्तियों को खोखला बना डालते हैं, हमें बरबाद कर देते हैं।

बार-बार समझाए जाने से उस वन के प्राणी विजयेंद्र की पत्नी की बातों के महत्त्व को समझने लगे हैं और उसके बतलाए मार्ग पर चलने की कोशिश करते हैं। विजयेंद्र की पत्नी पति के प्रति यही अपनी सच्ची श्रद्धांजलि मानती है।

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