शक्ति की पहिचान

एक बार अभयारण्य में बहुत जोरों का तूफान आया। संयोग की बात थी कि उसी दिन सारे पक्षियों ने मिलकर घूमने का कार्य-क्रम बनाया था। वे सब सुबह-सुबह वहाँ से उड़ गए थे।

शाम को जब वे वापिस लौटे तो वहाँ का दृश्य देखकर उनका जी धक से रह गया। सारे के सारे पेड़ धरती पर उखड़े पड़े थे। तूफान ने उन्हें जड़ सहित उखाड़कर फेंक दिया था। बस एकमात्र वट वृक्ष ही चोटें सहकर खड़े थे।

पक्षियों ने दुःखी मन से वृक्षों की संवदेना में शोक सभा की। आखिर उन्हीं की गोद में वे पले बढ़े और रह रहे थे। जीवन के न जाने कितने सुनहरे दिन उन्होंने उन्हीं वृक्षों की गोद में बिताए थे।

साथ ही उनके घोंसले, अण्डे-बच्चे भी वृक्षों के साथ नष्ट हो गए थे। सारे पक्षी बड़े उदास थे, उन्हें लग रहा था जैसे उनके सभी सगे-संबंधी मर गए हों। उस दिन न किसी ने खाना खाया और न पानी पिया।

कुछ दिन इसी प्रकार शोक की स्थिति में बीते। तब एक वृद्ध नीलकंठ से न रहा गया। उसने सभी पक्षियों को इकट्ठा किया और कहने लगा- ‘बच्चो ! तुम ऐसे कब तक शोक मनाओगे ?

इस तरह शोक मनाने से क्या लाभ ? मरने वालों के साथ मरा तो नहीं जाता, पर हाँ ! यदि उनके प्रति हम सच्चा प्रेम, सच्ची श्रद्धा रखते हैं तो कुछ ऐसा करें कि उनकी स्मृति दुनियाँ में रहे।’

सभी पक्षियों को नीलकंठ दादा की बात बिलकुल सही ही लग रही थी। ‘दादाजी ! आप ही बताइए कि हम सब क्या करें ?’ वे एक स्वर में पूछने लगे।

‘यदि तुमने वृक्षों को सच्चे मन से प्यार किया है तो उन्हें फिर से लगाओ।’ वह कहने लगा ।

‘दादाजी ! वह सब कैसे संभव हो सकता है ? हम नन्हें-नन्हें पक्षी हैं, हमारी इतनी सामर्थ्य भी कहाँ है ?’ सुखिया कोयल मुँह फुलाकर बोली ।

‘सुखिया ! इस दुनियाँ कुछ भी असंभव नहीं है। जो काम मन लगाकर किया जाता है, वही संभव हो जाता है। जो काम बिना मन के और आलस से करते हैं तो वही असंभव हो जाता है।’ नीलकंठ ने उत्तर दिया।

‘दादाजी ! कैसे करें यह काम। कृपया साफ-साफ समझाएँ ।’-,सारे पक्षी पूछने लगे।

नीलकंठ बोला- ‘बच्चो ! तुम शरीर से छोटे हो तो क्या ? बहुत कुछ कर सकते हो। तुम सभी अपनी-अपनी चोंच में एक-एक पेड़ या पौधे का बीज ले आओ। थोड़ी-थोड़ी दूर पर अपने पंजों से जरा-सी जमीन खोदकर उसे दबा दो। जल्दी ही वर्षा आने वाली है, कुछ ही दिनों में तुम देखोगे कि तुम्हारे चारों ओर ढेर सारे नन्हें-नन्हें पौधे उग आए हैं।’

‘दादाजी ! बात तो आपने बहुत अच्छी बताई है। हम ऐसा ही करेंगे। यही वृक्षों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि ही होगी।’ सभी पक्षियों ने मिलकर कहा और अपने-अपने भोजन की खोज में उड़ चले।

उस दिन से सभी पक्षियों ने अभियान शुरू कर दिया। शाम को जब वे लौटते थे तो उनके पंजों में किसी न किसी वृक्ष का बीज लगा रहता था। उस बीज को या तो गड्ढे में डाल देते या फिर अपने पंजे से थोड़ी-सी जमीन खोदकर उसमें दबा देते थे। कोई-कोई पक्षी तो छोटा-सा पौधा ही जड़ सहित ही उखाड़ लाता था। कई पक्षी तपती दोपहरी में भी अपनी चोंर्च में पानी भरकर लाते और लगाए गए वृक्षों-बीजों में डालते।

पक्षियों का यह कठोर परिश्रम देखकर इंद्र भगवान का दिल भी पसीज उठा। जो स्वयं अपनी सहायता करता है भगवान भी उसी की सहायता करते हैं, उसी को आशीर्वाद देते हैं।

जल्दी ही आसमान में काले-काले बादल छाने लगे। वर्षा की झड़ी लग गई। सभी पक्षी प्रसन्न हो उठे। मोर कॅआ-केंआ के स्वर में राग अलाप कर नाच उठे।

आठ-दस दिन बाद बीजों में से अंकुर निकलने लगे। उन्हें देखकर पक्षी झूम उठे। प्रसन्नता की अधिकता से वे एक-दूसरे की चोंच से चोंच मिलाकर नाचने लगे। आखिर उनका परिश्रम जो सफल रहा था। नियमित और व्यवस्थित रूप से परिश्रम करने से बड़ा उद्देश्य भी पूरा हो जाता है।

कुछ ही दिनों में चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिखलाई देने लगी। वह स्थान अब पहले से भी अधिक सुंदर लगने लगा था। सभी पक्षियों ने उसका नवीन नामकरण किया था – ‘शीतलकुंज।’ सभी पक्षी इसके लिए नीलकंठ दादा के आभारी थे। उन्हीं की प्रेरणा से नव-निर्माण हुआ था।

एक दिन साँझ के झुटपुटे में सभी पक्षी आराम से घेरा बना कर आ बैठे थे। वे सभी खा-पीकर निश्चिंत और ठंडी-ठंडी हवा में आपस में बतिया रहे थे। चारों ओर फैली हरियाली को देखकर वे फूले न समा रहे थे। सुखिया कोयल कहने लगी-दादाजी ! हम सभी तो हिम्मत हारकर ही बैठ गए थे, आपकी प्रेरणा से ही यह कुंज बसाया जा सका है।’

बुड्ढे नीलकंठ को सहसा ही उस दिन बात याद आ गई जब सुखिया कोयल ने तुनककर कहा था— हम तो नन्हें-नन्हें पक्षी हैं, हमारी इतनी सामर्थ्य भी कहाँ है ?’ नीलकंठ दादा मुस्कराते हुए बोले- ‘बेटी ! दुःख-मुसीबत में हिम्मत हारकर बैठने से हम रही सही शक्ति भी खो बैठते हैं। जो साधारण व्यक्ति होते हैं वे आपत्ति आने पर हिम्मत हारकर बैठ जाते हैं। परन्तु महान् व्यक्ति संकट में और अधिक धैर्य तथा साहस से काम करके चमक उठते हैं। धैर्य और अध्यवसाय — ये बड़े से बड़े संकट में भी विजय की अमोघ कुंजियाँ हैं।

फिर सभी पक्षियों की ओर देखते हुए नीलकंठ दादा समझाने लगे— ‘बच्चो ! हमारे अंदर बहुत क्षमताएँ हैं, शक्ति का खजाना है। पर खेद है कि हम पहिचान नहीं पाते। अधिकांश प्राणी रोते- कलपते, भटकते रहते हैं, जीवन को बरबाद करते रहते हैं। जो अपने को पहिचान लेते हैं, अपनी आंतरिक शक्तियों को जानकर उनका सदुपयोग कर लेते हैं, वही अपने जीवन को ऊँचा उठा लेते हैं, औरों के लिए भी खुशहाली लाते हैं।’

‘दादाजी ! आप ठीक कहते हैं। सभी पक्षी जो अब तक एक साथ बड़े ध्यान से नीलकंठ दादा की बात सुन रहे थे, गर्दन हिला-हिलाकर बोले ।

‘इतना बड़ा ‘शीतलकुंज’ बनाने की बात तो हम कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे।’ हरियल तोता कहने लगा।

‘दादाजी ! हम आपके बड़े ही कृतज्ञ हैं कि आपने हमें जीवन का बहुत बड़ा ज्ञान दिया है। अपने आपको पहिचानने का, अपनी शक्तियों को जानकर आगे बढ़ने का ज्ञान्। हम आपका यह संदेश लेकर दूर-दूर तक जाएँगे और दीन-हीन प्राणियों में नई चेतना, नई जागृति का मंत्र फूकेंगे।’ सभी पक्षी बोले।

इस प्यार से नीलकंठ दादा की आँखों में आँसू चमक आए। वे हुए गले से बोले—’बच्चो ! आज मैं धन्य हो उठा हूँ। मेरे प्रति रुँधे यही तुम्हारी सच्ची श्रद्धा होगी। तुम अपने कार्य में सफल होओ, ईश्वर का आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहे।’

नीलकंठ दादा के उपदेश से शीतलकुंज के सब पक्षियों ने न केवल अपना ही नया निर्माण किया, अपितु दीन-दुःखी अन्य अनेक पक्षियों को भी नये जीवन का जागृति-संदेश दिया। सच है कि महान् व्यक्ति की संगति से साधारण जन-जीवन भी बदल जाता है और असाधारण कार्य सहज भाव से कर लेता है।

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