नदी पार की दावत
रावी नदी के किनारे घना जंगल था । उसमें बहुत से जानवर रहा करते थे। एक बार भास्कर नाम के एक हाथी और कांत नाम के एक बंदर में गहरी दोस्ती हो गई। दोनों साथ-साथ रहते थे, साथ-साथ घूमा करते थे।
एकदूसरे की सहायता करते थे। जंगल के सभी जानवर भास्कर से कहते कि कांत बड़ा चालाक है, कभी भी तुम्हें धोखा दे सकता है, पर भास्कर उनकी बात पर कभी ध्यान नहीं दिया करता था ।
एक दिन कांत एक बहुत ऊँचे बरगद के पेड़ पर चढ़ गया। वहाँ बैठकर कुछ देर तक वह गूलर खाता रहा। फिर उन्हें खाते- खाते उसका मन भर गया तो एक ऊँची शाखा पर चढ़कर इधर- उधर देखने लगा।
सहसा उसकी निगाह नदी के पार गई। वहाँ ऊँचे-ऊँचे गन्नों का हरा-भरा खेत था। इतने अच्छे गन्ने देखकर कांत का मन ललचा गया।
” पर गन्ने मिल कैसे सकते हैं ?” उसने मन ही मन सोचा । क्योंकि गन्ने पाने के लिए नदी पार करनी पड़ती और कांत नदी पार कैसे कर सकता था ?
एकाएक उसे अपने मित्र भास्कर का ध्यान आया। बस फिर क्या था ? वह तुरंत ही उछलता कूदता भास्कर के पास पहुँचा और बोला—‘“दोस्त चलो आज तुम्हें एक बढ़िया सी दावत दूँ ।” “
“किस चीज की दावत दोगे मुझे ?” भास्कर ने अपने दाँत निकालते हुए पूछा। “तुम्हारी सबसे प्रिय चीज गन्ने की दावत दूँगा।” कांत कहने लगा।
‘पर गन्ने तो नदी के उस पार लगे हुए हैं। तुम कैसे नदी पार कर पाओगे दोस्त ?” भास्कर ने पूछा।
कांत बोला—“मैं तुम्हारी पीठ पर बैठ जाऊँगा । इस प्रकार दोनों उस पार जाएँगे।”
भास्कर ने ऐसा ही किया। दोनों नदी के उस पार गन्ने के खेत में पहुँच गए। दोनों दोस्त गन्ने खाने में जुट गए। कांत का मन जल्दी ही भर गया, पर भास्कर का पेट अभी भरा न था । वह गन्ने खाने में जुटा हुआ था, कांत इधर-उधर उछल-कूद मचाने लगा। जोर-जोर से आवाज करने लगा।
भास्कर बोला—” कांत ! तुम इस तरह शोर न मचाओ। तुम्हारा शोर सुनकर खेत का मालिक आ जाएगा। फिर वह दोनों को यहाँ से मार भगाएगा।”
कुछ देर तक तो कांत चुप रहा, पर अंत में उससे न रहा गया। वह फिर उछल-कूद करने लगा। जोर-जोर से शोर करने लगा। खेत के रखवाले ने जब कांत की आवाज सुनी तो डंडा लेकर दौड़ा।
चतुर कांत तुरंत ही खेत के बाहर दौड़ गया। रखवाला आया तो उसने भास्कर को बैठे देखा। बस फिर क्या था ? उसने पीछे से भास्कर पर ही आठ-दस डंडे कसकर जमा दिए।
चोट खाकर भास्कर चिंघाड़ उठा। वह तुरंत खेत से बाहर भागा। मन ही मन उसे कांत पर बड़ा गुस्सा आ रहा था; क्योंकि उसके कारण ही आज भास्कर को इतनी चोट खानी पड़ी थी।
भास्कर सीधा नदी की ओर दौड़ा। तभी उसने सुना कि कांत पीछे से पुकार रहा है- “रुको दोस्त! मैं भी आ रहा हूँ। इस अनजान प्रदेश में छोड़कर न जाओ।”
भास्कर ने मन ही मन में सोचा कि आज इसे सबक सिखाऊँगा और रुक गया। उसने कांत को पीठ पर बैठा लिया। पानी में पहुँचकर भास्कर बैठ गया। अब तो कांत घबराने लगा। बोला—“ अरे-अरे! यह तुम क्या कर रहे हो ? ऐसे तो मैं डूब जाऊँगा।”
“मेरी चोट में बड़ा दरद हो रहा है। मैं तो यहीं पानी में लेदूँगा।” भास्कर बोला।
अब कांत गिड़गिड़ाने लगा। बोला- “मैं तुम्हारी पीठ सहला देता हूँ। तुम लेटना नहीं, नहीं तो मैं डूब जाऊँगा।”
” पर मैं तो दरद के मारे मरा ही जा रहा हूँ।” भास्कर ने कहा और तुरंत नदी में डुबकी लगा ली।
“अब तो नदी का पानी कांत की आँख, नाक, कान और गले में घुस गया। उसका दम सा घुटने लगा।”
‘भास्कर! मित्र मुझे बचा लो। अब मैं कभी भी तुम्हारा बुरा नहीं करूँगा।” रोते हुए कांत ने कहा।
तुरंत भास्कर उठ खड़ा हुआ। अब कांत की जान में जान आई। भास्कर तेजी से किनारे की ओर बढ़ा। अपनी पीठ पर से उसने कांत को उतारा और बोला- “कांत ! नदी में नहाने का मेरा कोई विशेष विचार नहीं था। मैं तुम्हें सबक देना चाहता था । सदैव अपने मन की करना अच्छा नहीं होता। परिस्थिति देखकर कार्य करना चाहिए कि कब क्या करना उचित है और क्या अनुचित ? जो हर स्थिति में अपने मन की करता है, उससे बड़ा मूर्ख और कोई नहीं है। “
“मैंने क्या किया है अपने मन का ?” कांत पूछने लगा । जब मैं गन्ने खा रहा था तो तुमने जोर-जोर से आवाज क्यों की? तुम अपने पर जरा भी नियंत्रण न रख सके ? तुम यह न सोच पाए कि इससे तुम्हारे मित्र पर विपत्ति आ सकती है। यह क्या तुम्हारा मित्र के साथ विश्वासघात नहीं है ? भास्कर ने उत्तेजित होते हुए पूछा ।
कांत उसके पैरों पर गिर पड़ा। बोला- “ दोस्त! तुम ठीक कहते हो। वह मेरी भयंकर भूल थी। मेरे मनमानी करने के कारण ही तुम्हें ऐसी चोट सहनी पड़ी है। जो भी कार्य हम करें, सोच-समझकर करें। कोई कार्य ऐसा न करें, जिससे दूसरे का कोई अहित हो। अपने लाभ के साथ-साथ दूसरे के लाभ का भी ध्यान रखें।”
“अब तुम बिलकुल सही रास्ते पर हो, भास्कर ने प्रसन्न होते हुए कहा। भास्कर ने अपनी सूँड़ बढ़ाई और कांत ने अपना हाथ । दोनों ने सदैव एकदूसरे का हित ध्यान में रखने की प्रतिज्ञा ली और विदा हुए।”