परिश्रमी सदा सुखी

दत्ता नाम की एक मधुमक्खी बड़ी आलसी थी। उसकी सारी सहेलियाँ सुबह ही काम पर निकल जातीं, पर वह देर तक सोती रहती। दिन में भी पड़ी अलसाती रहती। कुछ भी काम करना उसे बुरा लगता था।

अन्य मधुमक्खियाँ मेहनत करके पराग आदि भी इकट्ठा करतीं, शहद बनातीं, दत्ता उन्हें पड़े-पड़े खाती रहती।

दत्ता का यह निकम्मापन अन्य मधुमक्खियों को पसंद न था । उन्होंने एक दिन सभा की। सभी ने एकमत से समर्थन किया कि दत्ता का बहिष्कार कर देना चाहिए। उसे हमारे साथ रहने का कोई अधिकार नहीं है, वह जहाँ चाहे चली जाए।

रानी मक्खी ने दत्ता को यह आदेश सुना दिया कि या तो वह काम करे या फिर अलग जाकर रहे। आलसी दत्ता ने काम करने की अपेक्षा अलग रहना अधिक उचित समझा। वह उसी दिन छत्ता छोड़कर चली गई।

नया छत्ता बनाना दत्ता जैसी आलसी के लिए संभव न था । वह बरगद के एक पेड़ पर उड़कर बैठ गई। घूम-फिरकर उसने अपने रहने की जगह तलाश की और अंत में एक कोटर में जाकर रहने लगी।

उस पेड़ की कोटर में दत्ता सारे दिन आलस में पड़ी रहती । जब उसे बहुत तेज भूख लगती तो इधर-उधर जाकर थोड़ा-बहुत खाना तलाश लेती। अकसर आलस्य के कारण वह भूखी भी रहने लगी। इस प्रकार थोड़े ही दिनों में वह बहुत दुबली हो गई।

बरगद के पेड़ पर शालिनी नाम की एक चिड़िया भी रहा करती थी। वह प्रायः दत्ता को समझाती – “बहन ! कुछ काम भी किया करो। आलस में समय गँवाने से क्या लाभ है ? आलसी जीवन में कुछ भी प्राप्त करने में सफल नहीं होता । आलस्य से बढ़कर और कोई शत्रु नहीं है। इसके रहते हम जीते जी मर जाते हैं। “

शालिनी की बातों का दत्ता पर कोई प्रभाव न पड़ता। वह उसकी बातें सुनती और मुँह फिरा लेती। हारकर शालिनी ने उससे कुछ कहना ही बंद कर दिया।

एक बार की बात है। एक मकड़ी घूमती हुई बरगद के पेड़ पर चढ़ गई। उसे भी अपने रहने की जगह की तलाश थी। दत्ता जिस कोटर में रहती थी, वह उसे बहुत पसंद आया। मकड़ी ने उस कोटर में अपना जाला पूर लिया।

आश्चर्य की बात कि दो दिन तक दत्ता को यह पता ही नहीं चला कि वह कैद हो चुकी है। चौथे दिन सुबह – सुबह उसे भूख लगी। अब खाने की तलाश में जाना चाहिए – उसने सोचा, पर यह क्या? उसके निकलने के सारे रास्ते बंद थे। सूरज की रोशनी में मकड़ी का जाला चाँदी सा चमक रहा था।

दत्ता यह देखकर घबरा उठी। उसने मन ही मन में सोचा कि अब तो मैं निश्चित ही मर जाऊँगी। मकड़ी मुझे भी किसी दिन खा जाएगी। तभी दत्ता की निगाह डाल पर बैठी शालिनी चिड़िया पर पड़ी। दत्ता वहीं से चिल्लाई- “शालिनी बहन ! मेरी सहायता करो।’

शालिनी ने दत्ता की आवाज पहचानते हुए कहा – “पर तुम बोल कहा से रही हो? “

“कोटर से ही बोल रही हूँ।” दत्ता चिल्लाई। “पर वहाँ तो दो-तीन दिन से एक मकड़ी है। मैंने सोचा कि

तुम कोटर छोड़कर चली गई होगी।” शालिनी बोली। “नहीं मैं यहीं हूँ। मुझे यहाँ से किसी भी तरह से निकालो।” दत्ता घबराकर बोली ।

“ठहरो, मैं तुम्हें बचाने का कोई उपाय सोचती हूँ।” शालिनी बोली। थोड़ी देर तक वह कुछ सोचती रही। फिर फुर्र से उड़ी, अपनी चोंच में एक लंबी सी टहनी तोड़ लाई । उस टहनी से शालिनी ने मकड़ी का जाला तोड़ डाला।

दत्ता जल्दी से अंदर से निकल आई। जाली टूटने से उसमें कैदी, कुछ मक्खी-मच्छर और अन्य कीड़े-मकोड़े भी भाग निकले। सभी शालिनी को धन्यवाद दे रहे थे।

दत्ता को शालिनी अपने घोंसले में ले गई। वहाँ उसे खाना खिलाया, वह तीन दिन से भूखी जो थी।

इसके बाद शालिनी कहने लगी- “दत्ता बहन ! तुम बुरा न मानना। अपने आलस के कारण ही तुम मौत के मुँह में जा फँसी थीं। आलस करने से क्या लाभ है ? जीवन अधिक से अधिक काम करने के लिए मिला है। सोचो तो, तुम आलसी न होतीं तो क्यों तुम्हें तुम्हारी सहेलियाँ निकालतीं ? क्यों तुम अकेली पड़ी रहतीं? आलस छोड़ो, अपनी सहेलियों के साथ मिल-जुलकर काम करते हुए रहो। इसी में सुख-सुरक्षा है।”

“तुम ठीक कहती हो बहन ! आज से मैं अपना आल बिलकुल छोड़ दूँगी।” दत्ता बोली।

वह अपनी सहेलियों के पास गई। उनसे जाकर क्षमा माँगी। दत्ता बोली – ” बहन ! मुझे अपने पास रख लो । अब मैं मन लगाकर काम करूँगी।”

“हमें प्रसन्नता है दत्ता ! तुम सही रास्ते पर आ गई हो। तुम्हारा स्वागत है, सभी के साथ मिल-जुलकर रहो। मधुमक्खियों की रानी बोली।’

अब दत्ता सारे दिन काम करती है। किसी को उससे कोई शिकायत नहीं रही है। दत्ता को स्वयं आश्चर्य होता है कि पहले वह बिना काम किए आलसी और निकम्मी कैसे पड़ी रहती थी ? उसकी समझ में अब यह बात अच्छी तरह आ गई है कि परिश्रम करने में ही सुख है।

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