जुगनओं की कैद
एक बार सुन्दरकानन में कुछ आदिवासी घूमते हुए आ गये । उस वन की सुन्दरता से वे बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने वहाँ कुछ दिन रुकने का निश्चय किया ।
दिन में तो सूरज की रोशनी रहती है, इसलिये उनका काम चल जाता था, पर रात में उस वन में घोर अँधेरा छा जाता था। हाथ को हाथ दिखाई नहीं देता था । गुफा में रहने में आदिवासियों को बड़ी कठिनाई होती थी ।
आदिवासियों के नेता भगेलू को एक उपाय सूझा । दूसरे दिन वह अपने नन्हीं जाली के पिंजरे में ढेर सारे जुगनू भर लाया । जब रात हुई तो गुफा हल्के-हल्के प्रकाश से भर उठी । इससे सभी आदिवासी बड़े प्रसन्न हुए ।
आदिवासी तो सो गये, पर जुगनुओं को भला नींद कहाँ ? वे परेशान से पिंजरे में इधर-उधर चक्कर काट रहे थे । परन्तु पिंजरे में उन्हें कोई रास्ता न मिला । पिंजरे में रखी हरी-हरी टहनियों को उन्होंने छुआ तक न था ।
सभी बाहर निकलने को बेचैन थे। पिंजरे में उनका दम-सा घुट रहा था । छोटे बच्चे तो अपने घर और माता-पिता की याद करके रो भी रहे थे । सारे बड़े जुगनू पिंजरे का चक्कर लगाकर थक गये, पर उन्हें बाहर निकलने का कोई रास्ता ही न मिला ।
अन्त में वे सभी थककर बैठ गये । छोटे बच्चों को उन्होंने कुछ खिलाया पिलाया और सुला दिया । अब वे सभी मिलकर सभा करने लगे ।
जुगनुओं का सरदार बोला- ‘भाइयो । अचानक ही यह विपत्ति हम पर आ पड़ी है । धैर्य खोने से काम नहीं चलेगा । आपत्ति में हताश होना बुद्धिमानी नहीं है । आओ हम सब मिलकर विचार करें कि क्या करना है ?’
एक वृद्ध जुगनू कहने लगा- ‘मित्रो ! यों हमें इस पिंजरे में तो खाना मिल जायेगा और कोई कष्ट नहीं दिया जायेगा । परन्तु पराधीनता सबसे बड़ा दुःख है । बाहर अपने हाथ-पैरों से श्रम करके कमाने-खाने और घूमने में जो आनन्द है वह इस पिंजरे में कहाँ ? बन्धन तो आखिर बन्धन ही है ।’
‘पर सवाल यह है कि यहाँ से निकला कैसे जाय ? हम सब तो कोशिश कर-करके थक गये, पर इस जाल को अपने मुँह से जरा भी न काट पाये । निकलने का तनिक भी रास्ता न बना पाये । लगता है अब तो जिन्दगी यहीं पर बितानी पड़ेगी ।’
एक बुड्ढा-सा जुगनू निराशा भरी आवाज में बोला । ‘ऐसी बातें न कहो काका ! निराशा और असहायता की बातें सोचना भी उचित नहीं । इसके स्थान पर हम यह क्यों न सोचें कि हम जल्दी ही यहाँ से छूटने में सफल होगे । आशा भरे विचारों से हमारा उत्साह बढ़ता है और सफलता भी मिलती है ।’ जुगनुओं के सरदार ने बूढ़े जुगनू को समझाया ।
इतने में जुगनुओं के सरदार की पत्नी बोली- ‘मुझे तो एक उपाय सूझा है । इस दुःख की घड़ी में हमें अपने मित्रों की सहायता लेनी चाहिये । जो समय पर काम आता है, वही सच्चा मित्र है । मित्र की सहायता लेने में कोई हानि भी नहीं है ।’
सरदार की पत्नी की यह बात सभी जुगनुओं को बड़ी पसन्द आयी । अपने पंखों को जोर-जोर से हिलाकर, चमक – चमक कर उन्होंने इस बात का समर्थन किया ।
तभी सरदार ने गुफामें पंचम स्वर में गा रहे एक झींगुर को आवाज लगायी – ‘ओ झींगुर भाई ! जरा इधर तो आओ ।’ ‘क्या बात है ?’
अपना गाना बीच में ही रोककर, मूछों को हिलाते हुए झीगुर बोला । ‘तुम हमारी कुछ सहायता करो । अपने पैने मुँह से इस पिंजरे को तनिक-सा काट डालो | इससे हम सब बाहर निकल आयेंगे और स्वतंत्र हो जायेंगे ।’
सरदार बोला । ‘हुँ-हुँ ! यहाँ तुम्हें दुःख ही क्या है ? आराम से तो रह रहे हो । मैं पिंजरा नहीं काहूँगा । अपने गानों से तुम्हारा मनोरंजन अवश्य कर सकता हूँ ।’ नकचढ़ा झींगुर करने लगा । ‘माफ करना भाई । जेल में रहकर कोई मनोरंजन नहीं होता ।’
सभी जुगनू कहने लगे । ‘तो फिर मैं चला ।’ कहकर झींगुर झी-झीं करता हुआ गुफा से बाहर चला गया । तभी जुगनुओं के सरदार ने देखा कि एक चींटी मुँह में खाना दबाये तेजी से गुफा की दीवार पर चढ़ी चली आ रही है ।
‘चींटी बहिन । जरा रुको तो सही ।’ उसने आवाज लगाई । चींटी ने अपनी गरदन चारों ओर घुमाई और सोचने लगी कि यह आवाज किधर से आ रही है ? तभी उसने कुछ कहते हुए सुना, कोई कह भी रहा है- ‘मैं यहाँ इस पिंजरे में से जुगनुओं का सरदार बोल रहा हूँ ।’
चींटी ने देखा गुफा के एक कोने में एक पिंजरा लटका हुआ है और उसमें से सारे जुगनू चमक रहे हैं । उसे यह देख कर बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि वे पिंजरे में कैसे आ गये ?
‘चींटी बहिन ! हम कुछ दिनों से बड़ी विपत्ति में पड़े हैं । इसलिये हमारी कुछ सहायता करो। हमें धोखा देकर इस पिंजरे में कैदी बनाया गया है । हम ठहरे ऊँची-ऊँची उड़ानें भरने वाले, इस जेल में हमारा जो घुट रहा है ।’
मैं तुम्हारी कैसे सहायता कर सकती हूँ ?’ अपना एक हाथ अपने सिर पर रखती हुई और कुछ गम्भीर स्थिति में सोचती हुई चींटी बोली ।
फिर कुछ देर बाद कहने लगी- ‘मित्र ! तुम चिन्ता न करो, जैसे भी होगा मैं तुम्हें इस कैद से मुक्ति दिलाऊँगी । सच्चा मित्र वही है जो विपत्ति में सहायता करे ।’
‘बहिन ! पर तुमने क्या उपाय सोचा है ?’ उन जुगनुओं के सरदार ने पूछा ।
‘देखो भाई ! मैं खुद तो तुम्हारा पिंजरा काट नहीं सकती । मैं अभी-अभी चुलबुल गिलहरी को बुला लाती हूँ वह मेरी पक्की सहेली है और बड़े ही परोपकारी स्वभाव की है। ‘पर क्या वह इतनी रात गये यहाँ पर आने को तैयार भी होगी ?’
उस सरदार ने पूछा । चींटी कहने लगी- ‘वह जरूर आयेगी । दूसरों की सेवा – सहायता करने में चुलबुल गिलहरी को बड़ा आनन्द आता है और वह इसमें अपना सुख-दुख भी नहीं देखती ।”
ऐसा कहकर चींटी तेजी से चुलबुल गिलहरी के घर की ओर दौड़ गयी । वह चुलबुल गिलहरी आधी रात में ही वहाँ दौड़ी चली आयी । उसने जरा-सी देर में ही उस पिंजरे में अपने पैने दाँतों से सूराख कर दिया ।
‘निकलो ! जुगनू सरदार ।’ बुड्ढे जुगनू ने कहा । ‘नहीं काका । पहले आप सब निकलें । सरदार का धर्म है कि पहले अन्य सभी को बचाये और अपनी रक्षा बाद में करे ।’ सरदार जुगनू कहने लगा ।
पिंजरे से सबसे पहले बच्चे निकले । फिर बुड्ढे निकले और फिर सब जुगनू निकले । सबसे अन्त में निकले सरदार जुगनू और उनकी पत्नी ।
उन्होंने पिंजरे से बाहर निकलकर चींटी और गिलहरी को सभी जुगनुओं की ओर से धन्यवाद दिया । रुँधे हुए गले से वे कहने लगे- ‘बहिनो ! तुम दोनों ने आज हमारे प्राण बचा लिये । हम कैसे तुम्हारा आभार व्यक्त करें ।’
‘इसमें आभार की क्या बात है भैया ! आपत्ति में पड़े हुए की सेवा-सहायता करना हम सभी का धर्म है । धिक्कार है उसे जो सिर्फ अपने लिये ही जीता है । हम सभी मिल-जुलकर रहें यही अच्छा है ।’ चुलबुल गिलहरी बोली ।
जुगनू गुफा में ऊँची-ऊँची उड़ानें भर रहे थे । जब तक एक-दो आदिवासी जग चुके थे । वे तो आश्चर्य से यही देख रहे थे कि सारे जुगनू पिंजरे से निकल कैसे आये ? तब तक सारे जुगनू गुफा से निकल भागे ।