पोल खुल गयी

एक थे बगुला भगत । जब वह बुड्ढे हो गये तो उनके खाने की एक बड़ी समस्या हो गयी । बुढ़ापे के कारण शरीर भी अशक्त-सा हो गया था । अतएव शिकार करने में उन्हें बड़ी परेशानी होती थी । भरपेट खाना न मिल पाने के कारण वे धीरे- धीरे दुबले हो गये ।

‘ऐसे कब तक चलेगा ?’ एक दिन उन्होंने सोचा और वे कोई तरकीब सोचने लगे । वे कुछ देर सोचते रहे-सोचते रहे, फिर सहसा ही उछल पड़े ।

दूसरे ही दिन से बगुला भगत ने अपनी योजना के अनुसार ही काम करना शुरू कर दिया। अपने दो-चार साथियों को लेकर वे गंगा की ओर चल पड़े ।

गंगा के तट पर बस्ती के किनारे बगुला भगत ने डेरा डाला । वहाँ वे गंगा में एक पैर से खड़े होकर ‘राम-राम’ का जप करने लगे । उनके साथी जगह-जगह जाकर प्रचार करते कि बगुला भगत पहुँचे हुए सन्त हैं, तपस्वी हैं । गंगा के किनारे रहने वाले पक्षियों से बार-बार यही बात कहते ।

पक्षी भी बगुला भगत को सदैव साधना में लगा हुआ देखते । फल यह हुआ कि धीरे-धीरे वे सभी उन्हें सन्त और तपस्वी मानने लगे और उनके भक्त बन गये । अब बगुला ‘भगतजी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये ।

एक दिन जब भगतजी के दर्शन के लिये बहुत सारे जीव-जन्तु एकत्रित थे । वे बोले-‘भाइयो ! मेरी साधना सफल हो चुकी है । ! भगवान् ने मुझे दर्शन दिया है । उन्होंने आदेश दिया है कि मेरी बनायी हुई सृष्टि की सेवा ही सबसे बड़ी साधना है । अतएव यदि तुम मेरा आशीर्वाद चाहते हो, तो दूसरों के उत्थान में जुट जाओ ।’

धन्य हैं आप ! धन्य हैं आप !’ सभी के मुँह से निकला । भगत जी आगे फिर कहने लगे- मैं सोचता हूँ कि बच्चों की भावी पीढ़ी का निर्माण बहुत बड़ा काम है। मैं बच्चों का एक बड़ा विद्यालय खोलना चाहता हूँ। मैं उन्हें अच्छी शिक्षा दूँगा । अपने समान ज्ञानी बनाऊँगा, चरित्रवान् बनाऊँगा और बहुत ऊँचा उठाऊँगा । आप सभी अपने बच्चों को विद्यालय भेजें ।’

फिर क्या था । दूसरे दिन से ही मुर्गा, तोता, कोयल, चिड़िया, गिलहरी, सारस, मोर आदि सभी ने अपने-अपने बच्चे वहाँ भेजने शुरू कर दिये ।

स्कूल चलाने से बगुला भगत को कई फायदे हुए । एक तो यही कि बच्चे अपने घरों से खाने-पीने का कुछ न कुछ सामान | लेकर आते थे । उनके माता-पिता श्रद्धावश कुछ न कुछ भेजते ही रहते थे ।

बच्चों से दूसरा लाभ यह भी था कि भगतजी उनसे अपनी खूब सेवा कराया करते थे। कभी शान्ता कोयल से अपने पैर दबवाते तो कभी श्वेता गिलहरी से अपनी पीठ । सुशील सारस उनके घर का भी बहुतेरा काम कर दिया करता था ।

गुरु महाराज की पाठशाला के दो बच्चे शुचि गिलहरी और अमित सारस बड़े ही शरारती थे । वह पढ़ने में बहुत तेज थे । एक बार बतायी हुई बात को ही अच्छी तरह समझ जाते थे ।

उन्हें भगतजी की यह बात बड़ी बुरी लगती थी कि वे बच्चों को कुछ और सिखलाते हैं और खुद उसका उल्टा काम करते हैं । बच्चों से तो यह कहा करते हैं कि जीवों की हत्या बहुत बुरी बात है । इससे हिंसा होती है, पाप चढ़ता है । जैसी जान दूसरों में है, वैसी ही हम सब में है ।

अतएव हम किसी को भी मन से दुःख न पहुँचायें, पर शुचि और अमित ने अनेकों बार देखा था कि भगतजी गंगा के तट पर पूजा करते-करते सबकी आँख बचाकर चुपके से मछली गप कर जाते हैं । पहली बार तो उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास न हुआ था । वह तो उन्हें बड़ा ही सज्जन समझते थे, पर बार-बार छिपकर देखने पर उन्होंने यही पाया तो फिर अपनी आँखों पर विश्वास करना ही पड़ा ।

उस दिन से उन्होंने उनका नाम भी भगत घण्टाल ही रख दिया था । अमित और शुचि ने कई बार कहा भी ‘गुरुजी ! जैसा आचरण आप हमें करने को कहते हैं, वैसा ही आप स्वयं तो नहीं करते हैं ।’

पर मैं तो बड़ा हूँ। तुम अभी छोटे हो । अपने आपको नियंत्रित रखने की तुम्हें ज्यादा जरूरत है ।’ गुरुजी अपनी लम्बी-सी गरदन हिलाकर कहते ।

एक दिन शुचि से न रहा गया। वह कह ही बैठी- ‘गुरुजी ! आप जो कुछ बच्चों को सिखलाते हैं, बड़े भी यदि वैसा ही करने लगें, तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन जाये ।’

‘अरे ! कल की बच्ची मुझे उपदेश देने चली है ।’ गुस्से में अपना डण्डा फटकारते हुए भगतजी बोले ।

अमित और शुचि ने सलाह की कि गुरुजी को मछली खाने की आदत वे छुड़वा कर ही रहेंगे । यदि वे माँस खाते हैं, तो फिर प्राणियों की हिंसा छोड़ दी है ऐसा कहकर ढोगे क्यों रचाते हैं ? जैसे अन्दर से हैं, वैसे ही बाहर से रहें । जो अन्दर से कुछ और ही सोचता है, बाहर से कुछ और करता है, तो उसके जैसा पापी और नीच दूसरा नहीं ।

अमित और शुचि ने एक योजना बनाई। वे सभी बच्चों के घर गये । सभी के माता-पिता से बोले- ‘भगतजी एक बहुत बड़ी साधना करने जा रहे हैं । उसे देखने के लिये उन्होंने आपको बुलाया है । कृपया कल ब्रह्म मुहूर्त में गंगा किनारे, बेंत की झाड़ियों के पीछे आप सभी इकट्ठे हो जायें । वहाँ किसी तरह का शोर-शराबा न करें, नहीं तो साधना में बाघा पड़ेगी ।’

कोयल, तोता, मुर्गा, चिड़िया, गिलहरी, सारस आदि सभी के घर-घर घूम-घूमकर उन्होंने यह संदेश दे दिया । और दूसरे दिन गंगा के किनारे बेंत की घनी झाड़ियों के पीछे सभी बच्चों के माता-पिता उपस्थित थे ।

भगत जी की साधना देखने के लिये कोयल, तोता, चिड़िया, मोर आदि सभी पंक्ति बनाकर मौन होकर चुपचाप बैठे थे ।

भगतजी को इस बात का तनिक भी पता न था । झाड़ियों के पीछे छिपे अनेकों अभिभावकों को वे हल्के अन्धेरे में देख भी न पाये । रोज की ही भाँति पूजा का बहाना करते-करते उन्होंने बीच-बीच में खूब गपागप मछलियाँ खाय । यह देखकर तो सभी अभिभावकों में खलबली मच गयी ।

वे सभी उनकी आलोचना करने लगे । भगतजी ने आँखें उठायीं । सामने से बच्चों के अभिभावकों को आता देखकर तुरन्त उन्होंने पैंतरा बदला । ‘राम-राम’ कहते वे अपने शिष्यों को आशीर्वाद देने के लिये आगे बढ़े ।

सबसे आगे कमल सारस था । गुस्से में भरकर लम्बी गरदन हिलाता वह बोला- ‘नहीं चाहिये हमें तुम्हारा आशीर्वाद ।’

‘जान लिया आज तुम्हारी सच्चाई को । तुम वैसे हो नहीं जैसा होने का ढोंग रचते हो ।’ कलिया कोयल चोंच फाड़कर कह रही थी ।

‘सच ही है कि बाहर से सन्त बन जाने से हमेशा के लिये कोई वैसा नहीं बन जाता है । सद्गुणों का निरन्तर अभ्यास करना होता है। ऐसा न होने पर तो सज्जन भी न जाने कब धीरे-धीरे दुर्गुण अपना लेते हैं । आपके उदाहरण से स्पष्ट ही हो जाता है…….।’ मीना गिलहरी पूँछ फटकार कर पंजों के बल बैठकर बोली ।

‘हम भी कितने मूर्ख थे जो आपकी प्रसिद्धि सुनकर ही विश्वास करने लगे । कभी हमने आँखें खोलकर आपको जाँचने परखने की कोशिश नहीं की । सच ही है कि जो अपनी बुद्धि से काम नहीं करता, दूसरों की देखी-सुनी बात पर विश्वास करता है, वह हमेशा धोखे में ही रहता है।’ हरियल तोता बोला ।

‘ध्यान रखो ! पोल कभी न कभी तो खुलती ही है । अच्छा यही है कि जैसे हम अन्दर से हैं, बाहर से भी अपने आपको वैसा ही दिखलायें ।’ बगुला भगत से यह कहकर बुजुर्ग कछुआ ने सभी को शान्त किया । जैसे-तैसे वे वहाँ एकत्रित सभी जानवरों-पक्षियों को सभी बच्चों सहित घर की ओर ले चले, नहीं तो सब के सब भगतजी को सबक सिखाने के लिये उतारू थे ।

दूसरे दिन कोयल, तोता, चिड़िया, सारस आदि सभी ने अपने-अपने बच्चों को स्कूल भेजना बन्द कर दिया । उनके बच्चे तो पहले भी भगत की शिकायत करते थे, पर उसे तब वे बच्चों की मूर्खता समझते थे । अब उनकी बात पर विश्वास करना ही पड़ा ।

भगत गुरु का सारे समाज में अपमान भी हुआ । बालवाड़ी भी बन्द हुई, पुजापा चढ़ना भी खत्म हुआ सो अलग। उनकी पोल खुल जाने पर मछलियाँ भी अब दूसरी जगह चली गयी हैं ।

भगतजी अब गंगा के सुनसान तट पर अकेले उदास बैठे रहते हैं । पेट भर खाना भी उन्हें मुश्किल से ही मिल पाता है । सच ही है कि ढोंगी अन्त में दुःख ही पाता है ।

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