माँ और बच्चे
दिल्ली में कुतुबमीनार के पास शैला नाम की एक चुहिया रहा करती थी । उसके दो छोटे-छोटे बच्चे थे। एक का नाम था-चीनू और दूसरे का बीनू । शैला दोनों बच्चों को बहुत प्यार करती थी ।
यहाँ तक कि वह उनके किसी काम में रोक-टोक भी न करती थी । जैसा वे चाहते करने देती, पर चीनू-बीनू की दादी को यह बात तनिक भी पसन्द न थी ।
वह शैला से अक्सर कहा करती- ‘अन्धा लाड़ भी किस काम का ? बच्चों को उतना ही प्यार करना चाहिये, जिससे बिगड़ें नहीं । उन्हें सही और गलत काम का ज्ञान कराना चाहिये। बच्चों को जब तक यह न बताया जायेगा कि क्या सही है और क्या गलत, तब तक उन्हें यह पता भी कैसे लगेगा कि वे क्या करें क्या न करें ?’
शैला बुड्ढी सास की बात को सुनी-अनसुनी कर देती । चीनू-बीनू को एक बड़ी गन्दी आदत । उसकी माँ खाने- पीने की जो भी चीजें लाती, सारी की सारी वे सामने लेकर बैठ जाते और मुँह मारने लगते।
जितना खाया जाता जी भर कर खाते, बची हुई जूठन इकट्ठा करके एक ओर रख देते । रोज का ही उनका यह क्रम बन गया था । उनकी दादी को यह बात बड़ी बुरी लगती ।
एक दिन आखिर उन्होंने शैला से कह ही दिया- ‘इन बच्चों की आदत बिगड़ गयी है । खाने का यह कौन-सा तरीका है कि यह सारी चीजें लेकर बैठ जाते हैं। जितना जी करता है खाते हैं, बची-खुची जूठन उसी में छोड़ देते हैं । जितनी चीज खानी हुआ करे, अलग निकाल कर खाया करें । जो भी चीज हो, परिवार के सभी सदस्य उसे मिल-बाँटकर खायें ।
उनकी यह बात शैला की समझ में आ गयी । फिर तो जो भी चीज लाती, चीनू-बीनू के लिये अलग निकालकर रख देती । चीनू-बीनू को अब कम चीज मिलने लगी थी, इसलिये उन्हें यह तनिक भी अच्छा नहीं लगता था । कभी वे पिताजी के हिस्से की रखी चीज चट कर जाते, तो कभी माँ के हिस्से की ।
दादी को यह बुरा लगता, तो वे कहतीं- ‘अरे ! यह कौन-सा लच्छन है। तुम्हारा ?’ अपने हिस्से की चीज खाओ । अपनी चीज खा-पीकर दूसरों की चीज पर क्यों ललचाते हो ? अपने साथ-साथ दूसरों को भी खिलाओ-पिलाओ तो यह अच्छी बात है, पर दूसरों की भी हड़प कर खाना गन्दी आदत है ।
दादी की डॉट के आगे अब वे उसके सामने कुछ न कर पाते, पर उनकी ऐसी गन्दी आदत पड़ गयी थी कि अपनी चीज खाने के बाद भी वे ललचाते रहते। घर में रखी चीजों की कल्पना से चीनू-मीनू बेचैन हो जाते ।
एक दिन चीनू-बीनू ने सलाह की वे दादी और माँ से आँखें बचाकर चुपचाप चीजें खा लिया करेंगे । फिर क्या था वे ऐसे ही चीजें निकालने लगे । माँ को पता न लगे, इस डर से पहले वे थोड़ी चीजें लेते थे, पर धीरे-धीरे उनकी यह आदत बढ़ती ही गयी ।
अब वे पूरी की पूरी चट कर जाते थे और ऐसी सफाई से करते थे कि किसी को कुछ पता ही न लगता । उनसे कोई पूछता तो साफ कह देते कि उन्होंने वह चीज नहीं ली है ।
माँ गायब हुई चीजों के बारे में उनसे प्यार से पूछती, तो वे यही कह देते कि हमें क्या मालूम कहाँ गयी ? बार-बार उनका यह उत्तर सुनकर शैला को बड़ा गुस्सा आया । उसने दोनों को सबक सिखाने की सोची ।
शैला एक दिन मिठाई का एक बड़ा टुकड़ा लायी । उसे पता था कि चीनू-बीनू जरूर इसकी खोज करेंगे । उसने जान-बूझकर मिठाई का वह टुकड़ा बिल के सँकरे और अंधेरे भाग में रख दिया।
चीनू-बीनू उसकी खुशबू से बावले हो उठे। वह माँ के पास गये और बोले— ‘माँ हमको मिठाई दो ।’ ‘बच्चो ! तुम्हारे पिताजी को भी आ जाने दो। सभी साथ-साथ खायेंगे ।’
बच्चे माँ से तो कुछ न बोले, पर भला उन्हें इतना धैर्य कहाँ ? माँ की आँख बचाकर चीनू यह खबर ले आया कि मिठाई कहाँ रखी है । ‘चलो भैया ! जल्दी से चलकर मिठाई खायें ।’ वह बीनू का हाथ पकड़ते हुए बोला ।
बीनू ने बिल के बाहर बैठी माँ की ओर इशारा किया और बोला- ‘बिल पर माँ बैठी है ।’
‘माँ को पता भी नहीं लगेगा, और चुपचाप से जल्दी खाकर आ जाते हैं ।’ चीनू ने बीनू को घसीटते हुए कहा । दोनों जल्दी से बिल के उस सँकरे भाग में घुस गये और मिठाई खतम करने में जुट गये ।
शैला इसी मौके की तलाश में थी । उसने जल्दी से जाकर लकड़ी के एक मजबूत टुकड़े से बिल का वह भाग ठीक तरह से बन्द कर दिया । चीनू-बीनू खाने में ऐसे लगे थे कि उन्हें इसका पता ही न लगा ।
चीनू- बीनू ने छककर मिठाई खाई, पर यह क्या ? इसके बाद जैसे ही उन्होंने निकलना चाहा, उन्हें रास्ता न मिला । चारों ओर से घना अन्धेरा था । लगता था मानो वे किसी गुफा में बन्द हो गये हैं ।
उन्होंने चारों और से निकलने की कोशिश की, पर सब व्यर्थ । उनके मुँह से खून निकलने लगा, पैर घायल हो गये, पर वे रास्ता न खोज पाये । बिल में लगी हुई लकड़ी को भी उन्होंने काटने की, धक्का देने की कोशिश की, पर उनके दाँत टूट गये, हाथ चिपक गये लेकिन लकड़ी टस से मस न हुई ।
वे समझ भी न पा रहे थे कि अचानक यह आखिर हो क्या गया । चीनू-बीनू दोनों बैठकर रोने लगे । रोते-रोते उनका बुरा हाल हो गया, बेहोशी छाने लगी तब कहीं जाकर शैला ने लकड़ी हटाई ।
उसने बच्चों से पूछा-‘अब तो नहीं करोगे चोरी ?’ चीन बोला- ‘हमने कौन-सी चोरी की है ? हम तो किसी के घर कुछ भी चुराने नहीं गये ?’
शैला बोली- ‘किसी से बिना पूछे उसकी चीज लेना ही चोरी है। घर में तुम माता-पिता की आँख बचाकर चीजें लेते हो, वह चोरी ही तो हुई। जो बच्चा शुरू में अपने घर में चोरी करने लगता है ।
वह शुरू में खाने-पीने की छोटी-मोटी चीजें चुराता है, बाद में उसे बड़ी चीजें चुराने की आदत पड़ जाती है । ‘माँ प्यारी माँ ! हमें माफ कर दो। हमें अपनी गलती पता लग चुकी है । अब हम तुमसे बिना पूछे कुछ भी नहीं लेंगे । चीनू और बीनू दोनों कहने लगे ।
शैला बोली- ‘बच्चो ! मैं तुम्हें ज्यादा चीज नहीं दे सकती, ऐसी बात नहीं है, पर मैं चाहती हूँ कि तुम मिल-बाँटकर खाना खाना सीखो । सारी चीज खुद ही खा जाना, दूसरों को न खाने देना यह बुरी आदत है ।
बुरी आदत जब पड़ जाती है, तो बढ़ती ही जाती है, फिर उसे छुड़ाने में भी कठिनाई होती है । तुम अभी से आदत नहीं डालोगे तो बड़े होकर कैसे अच्छे बनोगे ? बचपन में हम जैसे बन जाते हैं, बड़े होकर वैसे ही रहते हैं । बचपन के संस्कार ही तो हमारे भविष्य को बनाते हैं ।’
“माँ हम वैसे ही बनेंगे जैसा तुम चाहती हो ।’ चीनू और बीनू ने कहा और शैला से लिपट गये । ‘मेरे बच्चो, मेरी आँखों के तारो ! तुम खूब अच्छे बनो, अच्छी आदतें डालो, गुणी बनो बस यही मैं तुमसे चाहती हूँ । हम माता-पिता अपने बच्चों से यही आशा करते हैं ।’ शैला ने कहा और दोनों के सिर पर प्यार से हाथ फिराने लगी ।